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अ०५/प्र०२
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ४०१ जोदड़ो की ईसापूर्व तीसरी सहस्राब्दी की उस उत्कीर्ण मुहर का अध्ययन किया जा सकता है, जिस पर गैंडा, भैंसा, सिंह, चीता, हाथी आदि पशुओं, पक्षियों और मनुष्यों के बीच में ध्यानस्थ बैठे हुए रुद्र-पशुपति-महादेव की मूर्ति रचनात्मक स्फूर्ति की ऊर्ध्वमुखी प्रेरणा को व्यक्त करती हुई ऊर्ध्व-रेतस्-मुद्रा में अंकित है। मोहेन-जोदड़ो की मुहर पर अंकित देवता के स्वरूप की व्याख्या ऋग्वेद की निम्न ऋचाओं से पूर्णतया होती है
ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषो मृगाणाम्।
श्येनो गृध्राणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेभन्॥ ९/९/६६॥ अनुवाद-"देवताओं में ब्रह्मा, कवियों में नेता, विप्रों में ऋषि, पशुओं में भैंसा, पक्षियों में बाज, शस्त्रों में कुल्हाड़ा, सोम पवित्र (छलनी) में से गाता हुआ जाता है।"
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवो मानाविवेश॥ ४/५८/३॥२४ अनुवाद-"मन-वचन-काय तीनों योगों से संयत वृषभ ने घोषणा की कि महादेव मर्यो में आवास करता है।"
___ "रुद्रः पशूनामधिपतिः।" अनुवाद-"रुद्र पशुओं का अधिपति अर्थात् अधिनायक व प्रेरक है।"
"मोहेन-जो-दड़ो वाली मुहर के उपर्युक्त ऋग्वेदीय विवरण के प्रकाश में इस विचारणीय नग्न मूर्ति की ऋग्वेद के माध्यम से पहचान करना आसान होगा।
"इस निबन्ध का लेखक जब मई, जून, जुलाई १९५६ के महीनों में एक पुरातात्त्विक गवेषणादल को अफगानिस्तान ले जा रहा था, तो उसे यूअनच्वांग (६००-६५४ ई० सन्) के उन यात्रावृत्तान्तों की सचाई की जाँच करने के लिए अनेक अवसर प्राप्त हुए , जो अफगानिस्तान तथा अन्यस्थान-सम्बन्धी विविध वैज्ञानिक और मानवीय उपयोग की बातों से भरपूर हैं। उसने होसिना, गजनी व गजना, हजारा व होसल के जो विवरण दिये हैं, ये बड़े ही महत्त्व के हैं। वह कहता है कि वहाँ बहुत से बुद्धतर तीर्थिक हैं जो 'क्षुन' देव की पूजा करते हैं। जो कोई उस नग्न देवता की श्रद्धा से आराधना २४. "यजुर्वेद के पुरुष सूक्त ३१-१७ में कहा गया है कि 'तन्मय॑स्य देवत्वमजानमग्रे' अर्थात्
उस आदिपुरुष वृषभ ने सबसे पहिले मर्त्यदशा में देवत्व की प्राप्ति की। स्वयं देवत्व की प्राप्ति करके ही उसने घोषणा की थी कि महादेवत्व मर्यों में ही आवास करता है। मर्यों से बाहर कहीं और देवत्व की कल्पना करना व्यर्थ है। इन्ही श्रुतियों के आधार पर ईशा० उप० में कहा गया है-'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्' अर्थात् जगत् में जितने भी जीव हैं, वे सब ईश्वर के आवास हैं।" अनुवादक।
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