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४०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०२ "हड़प्पा की मूर्ति के उपर्युक्त गुणविशिष्ट-मुद्रा में होने के कारण यदि हम उसे जैनतीर्थंकर अथवा ख्याति प्राप्त तपोमहिमायुक्त जैन सन्त की प्रतिमा कहें, तो इसमें कुछ भी असत्य न होगा। यद्यपि इसके निर्माणकाल २४००-२००० ईसापूर्व के विषय में कुछ पुरातत्त्वज्ञों द्वारा सन्देह प्रकट किया गया है, परन्तु इसकी स्थापत्यशैली में कोई भी ऐसी बात नहीं है जो इसे मोहेन-जो-दड़ो की मृन्मय मूर्तियों एवं वहाँ की उत्कीर्ण मोहरों पर अंकित बिम्बों से पृथक् कर सके। इस स्थल पर इस मूर्तिसम्बन्धी सर मौर्टिमर ह्वीलर के विचार, जो INDUS VALLEY CIVILISATION (CAMBRIDGE HISTORY OF INDIA. 1953) के पृष्ठ ६६ पर प्रकाशित हुये हैं, उद्धृत करने योग्य हैं
"इन दोनों मूर्तियों में, जो अपने उपलब्ध रूप में चार इंच से भी कम ऊँचाईवाले पुरुषाकार कबन्ध हैं, ऐसी सजीवता और उल्लास भरा है, जो ऊपर वर्णित रचनाओं में तनिक भी देखने को नहीं मिलता। इनकी ये विशेषताएँ इतनी स्वस्थ और परिपुष्ट हैं कि अभी इन्हें सिंधुयुग की कहने और सिद्ध करने में कुछ आपत्ति सी दीख पड़ती है। दुर्भाग्य से वे वैधानिक उपाय, जो इनके अन्वेषकों द्वारा प्रयुक्त हुए हैं, उत्खात भूमि के विभिन्न स्तरों की गहराई सम्बन्धी तथ्यों के सन्तोषजनक सबूत प्राप्त कराने में अपर्याप्त रहे हैं और उनका यह कथन कि इन मूर्तियों में से एक नर्तक की मूर्ति हड़प्पा के अन्न-भण्डारवाले स्तर से प्राप्त हुई और दूसरी उसी के समीपवर्ती स्थान के लगभग ४ फुट १० इंच नीचेवाले स्तर से मिली, बाह्य हस्तक्षेपकी संभावना का निराकरण नहीं करता। इन मूर्तियों को उत्तरकालीन कहना भी कठिनाई से खाली नहीं है। यह संदेह तभी दूर हो सकता है, जब अधिक अन्वेषणों द्वारा इस क्षेत्र के विभिन्न स्तरों से प्राप्त वस्तुओं का समुचित अभिलेखों की सहायता से तुलनात्मक अध्ययन किया जावे।"
__ "श्री ह्वीलर की अन्तिम टिप्पणी से यह स्पष्ट है कि इन मूर्तियों को उत्तरकालीन कहना उतना ही कठिन है, जितना कि इन्हें ईसापूर्व तीसरी सहस्राब्दी का न कहना। इस तरह दोनों पक्षों की युक्तियाँ समकक्षं हैं।
आइये, अब हम इन मूर्तियों के स्वाश्रित (Subjective) और पराश्रित (Objective) महत्त्व की जाँच करें। इसके स्वाश्रित महत्त्व का अध्ययन तो हम पहले ही कर चुके हैं। यह एक सीधे खड़े हुए नग्न देवता की प्रतिमा है, जिसके कन्धे पीछे को ढले हुए हैं और इसके साफ-सुथरे रचे अवयव ऐसा व्यक्त करते हैं कि इस ढले पिण्ड के भीतर चेतना एक सुव्यवस्थित और सुसंयत क्रम से काम कर रही है। जननेन्द्रिय की स्थिति संयमभाव को इस तरह प्रदर्शित कर रही है कि इन्द्रियविजयी 'जिन' की अवधारणा का अनायास ही आभास हो जाता है। इसके मुकाबले में मोहेन
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