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अ०५ / प्र० २
पुरातत्त्व में दिगम्बर - परम्परा के प्रमाण / ३९९
हड़प्पा और जैनधर्म
श्री टी० एन० रामचन्द्रन्
" सिन्धुघाटी सभ्यता के महान् स्मृतिचिह्न उसकी प्रस्तर - कलाकृतियाँ हैं । अब त हड़प्पा से १३ मूर्तियाँ प्रकाश में आयी हैं, जिनमें दो सुप्रसिद्ध और बहुचर्चित लघुप्रतिमाएँ भी हैं । इन दो लघुप्रतिमाओं ने प्राचीन भारतीयकला सम्बन्धी आधुनिक मान्यताओं में एक क्रान्ति ला दी है। ये दोनों प्रतिमाएँ ऊँचाई में ४ इंच से भी कम हैं और मस्तकहस्त-पाद- विहीन पुरुष - कबन्ध के रूप में हैं। दोनों में ग्रीवा और कन्धों के स्थान पर अलग से बनाए हुए मस्तक और बाहु जोड़ने के लिए रन्ध्र बने हुए हैं। ये दोनों मूर्तियाँ २४०० से २००० ईसापूर्व की आँकी गयी हैं। इनमें एक प्रतिमा नर्तक की है, दूसरी यथाजात-नग्न-मुद्रावाले एक सुदृढ़काय युवा की है।
" नर्तकप्रतिमा इतनी सजीव और नवीन है कि यह मोहेनजोदड़ो - कालीन मूर्तियों के निर्जीव विधिविधानों से नितान्त अछूती है। यह भी नग्न मुद्राधारी मालूम होती है। इससे इस सुझाव को समर्थन मिलता है कि यह उत्तरकालीन नटराज अर्थात् नाचतेशिव का प्राचीन प्रतिरूप है। सभी कलाविशेषज्ञों का मत है कि विशुद्ध सादगी और सजीवता की अपेक्षा यूनानी कलायुग से पहले कोई भी ऐसी मूर्ति निर्मित नहीं हुई, जिसकी तुलना इन दो महत्त्वशाली मूर्तियों से की जा सके ।
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" नग्नमुद्राधारी तरुण की प्रस्तरमूर्ति भी प्राचीन भारतीय कला के इस मौलिक तथ्य की साक्षी है कि भारतीय कला का विकास अकृत्रिम प्रकृति से उतना ही सुसम्बद्ध है, जितना कि अपने सामाजिक वातावरण और लोकोत्तर आदर्शो से । यह कला आध्यात्मिक गुणों एवं रचनात्मक शक्तियों से सम्पन्न ऐसी दिव्यता की प्रतीक है, जो बाहर विकीर्ण न होकर अन्तर्मुख शान्ति का सम्पादन करती है । वास्तव में यही वह तत्त्व है जिसकी अभिव्यक्ति हम जैनों के उपास्यदेव तीर्थंकरों में पाते हैं, जिसके कारण मैसूर प्रदेश के श्रवणबेलगोल, कारकल और वेणूर में स्थित उनकी प्रतिमाएँ लोगों का ध्यान आकृष्ट करती हैं। अपनी समस्त इन्द्रियों के व्यापार का मन-वचन-काय की गुप्ति द्वारा नियन्त्रण किये हुए, अपनी समस्त विभूतियों और सृष्टिकारक शक्तियों का अहिंसा एवं कोमल सूत्र द्वारा वशीकरण किये हुए और ऋतुओं की कटुताओं के प्रति अपने कायिक अङ्गोपाङ्गों का व्युत्सर्ग किये हुए मैसूर प्रदेश के श्रवणबेलगोल - स्थित बाहुबली की महान् मूर्ति के समान जैन तीर्थंकरों और जैन सन्तों की सभी मूर्तियाँ अपने पुरातन और निर्ग्रन्थ यथाजात नग्नरूप में मानव-मानव को यह देशना कर रही हैं कि अहिंसा ही समस्त मानवी दुःखों के निवारण का एक मात्र उपाय है। ये 'अहिंसा परमो धर्मः ' का साक्षात् पाठ पढ़ा रही हैं ।
सुदृढ़
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