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________________ ३९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५ / प्र०२ श्री पी० आर० देशमुख-"जैनों के पहले तीर्थंकर सिन्धु सभ्यता से ही थे। सिन्धुजनों के देव नग्न होते थे। जैन लोगों ने उस सभ्यता / संस्कृति को बनाये रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की।"२२ सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैनमुनि आचार्य विद्यानन्द जी अपने शोधपूर्ण आलेख 'मोहेनजो-दड़ो : जैन परम्परा और प्रमाण' में लिखते हैं-"जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद है। प्राचीनता के इस तथ्य को हम दो साधनों से जान सकते हैं : पुरातत्त्व और इतिहास। जैन पुरातत्त्व का प्रथम सिरा कहाँ है, यह तय करना कठिन है, क्योंकि मोहन-जो-दड़ो की खुदाई में ऐसी कुछ सामग्री मिली है, जिसने जैनधर्म की प्राचीनता को आज से कम से कम ५००० वर्ष आगे धकेल दिया है। सिन्धुघाटी से प्राप्त मुद्राओं के अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि 'कायोत्सर्गमुद्रा' जैनों की अपनी लाक्षणिकता है। प्राप्त मुद्राओं की तीन विशेषताएँ हैं : कायोत्सर्गमुद्रा, ध्यानावस्था और नग्नता (दिगम्बरत्व)। मोहन-जो-दड़ो की सीलों पर योगियों की जो कायोत्सर्गमुद्रा अंकित है, उसके साथ वृषभ भी है। 'वृषभ' ऋषभनाथ का चिह्न है" (पृ. ११-१२)। हड़प्पा-जिनप्रतिमा हड़प्पा के उत्खनन में भी जैन संस्कृति के चिह्न प्राप्त हुए हैं। वहाँ एक ऐसी मस्तकविहीन नग्न मानव-मूर्ति मिली है जो कायोत्सर्गमुद्रा में ध्यानस्थ है।२३ वह लोहानीपुर (पटना, बिहार) में प्राप्त मौर्यकालीन तीर्थंकर-प्रतिमा से अत्यन्त साम्य रखती है। पुरातत्त्वविदों ने उसे जैन तीर्थंकर की प्रतिमा माना है। केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के भूतपूर्व महानिदेशक श्री टी० एन० रामचन्द्रन् ने उसका गहन अध्ययन कर सिद्ध किया है कि वह आद्य जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा है। उन्होंने अपने विचार HARAPPA AND JAINISM नामक शोधलेख में व्यक्त किये हैं।२३ इस लेख का अनुवाद श्री जयभगवान् जी एडवोकेट ने किया था, जो अनेकान्त मासिक (वर्ष १४/किरण ६/जनवरी १९५७) में प्रकाशित हुआ था। लेख के महत्त्वपूर्ण अंशों का अनुवाद नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। २२. इंडस सिविलिजेशन ऋग्वेद एण्ड हिन्दू कल्चर/ पृ.३४४ (मुनि श्री प्रमाणसागर : 'जैनधर्म _ और दर्शन'/ पृ. ३७ से उद्धृत)। २३. देखिए , इसी अध्याय के अन्त में विस्तृत सन्दर्भ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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