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अ०५ / प्र० २
पुरातत्त्व में दिगम्बर- परम्परा के प्रमाण / ३९७ के रूप में अभिहित हुए हैं। उनके योगयुक्त व्यक्तित्व से शंकर के योगीरूप का काफी सामीप्य है। महंजोदरो में योग-प्रथा सूचक जो निशान मिले हैं, उनका सम्बन्ध जैन और शैव, दोनों ही परम्पराओं जोड़ा जा सकता है। "१७
अन्य अनेक सुप्रसिद्ध इतिहासकारों एवं पुरातत्त्वज्ञों ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं। यथा
श्री वाचस्पति गेरौला - " श्रमणसंस्कृति का प्रवर्त्तक जैनधर्म प्राग्वैदिक धर्म है। मोहनजोदड़ो से उपलब्ध ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियों की प्राप्ति से जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद सिद्ध होती है। वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमण- ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिनिधित्व भी जैनधर्म ने ही किया है। धर्म-दर्शन, संस्कृति और कला की दृष्टि से भारतीय इतिहास में जैनों का विशेष योग रहा है । ११८
डॉ० एम० एल० शर्मा - " मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहर पर जो चिह्न अंकित है, वह भगवान् ऋषभदेव का है। यह चिह्न इस बात का द्योतक है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व योगसाधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैनधर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे । सिन्धुनिवासी अन्य देवताओं के साथ ऋषभदेव की पूजा करते थे। १९
श्री विश्वम्भर सहाय प्रेमी - " शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से यदि इस प्रश्न पर विचार करें तो भी यह मानना ही पड़ता है कि भारतीय सभ्यता के निर्माण में आदिकाल से ही जैनियों का हाथ था । मोहनजोदड़ो की मुद्राओं में जैनत्व-बोधक चिह्नों का मिलना तथा वहाँ की योगमुद्रा ठीक जिनमूर्तियों के सदृश होना इस बात का प्रमाण है कि तब ज्ञान और ललित कला में जैनी किसी से पीछे नहीं थे । २०
डॉ० विशुद्धानन्द पाठक एवं पं० जयशंकर मिश्र - " विद्वानों का अभिमत है कि यह धर्म प्रागैतिहासिक और प्राग्वैदिक है । सिन्धुघाटी की सभ्यता से मिली योगमूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मंत्रों में ऋषभ तथा अरिष्टनेमि जैसे तीर्थंकरों के नाम इस विचार के मुख्य आधार हैं। भागवत और विष्णुपुराण में मिलनेवाली जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा भी जैनधर्म की प्राचीनता व्यक्त करती है । २१
१७. संस्कृति के चार अध्याय / पृ.११०
१८. भारतीयदर्शन / पृ.९३ (मुनि श्री प्रमाणसागरकृत 'जैनधर्म और दर्शन / पृ. ३५ से उद्धृत) । १९. भारत में संस्कृति और धर्म / पृ.६२ (मुनि श्री प्रमाणसागर : 'जैनधर्म और दर्शन / पृ. ३५ से उद्धृत) । २०. हिमालय में भारतीय संस्कृति / पृ. ४७ (मुनि श्री प्रमाणसागर : 'जैनधर्म और दर्शन' / पृ. ३५. से उद्धृत) । २१. भारतीय इतिहास और संस्कृति / पृ. १९९ - २०० (मुनि श्री प्रमाणसागर : 'जैनधर्म और
दर्शन' पृ. ३५ से उद्धृत) ।
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