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________________ ३९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०२ भारतीय सभ्यता के बीच की खोई हुई कड़ी का भी एक उभय-साधारण सांस्कृतिक परम्परा के रूप में कुछ उद्धार हो जाता है।" (हिन्दूसभ्यता / पृ. २३-२४)। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भूतपूर्व प्रोफेसर श्री प्राणनाथ विद्यालंकार भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सिन्धुघाटी में प्राप्त कायोत्सर्ग-प्रतिमाएँ तीर्थंकर ऋषभदेव की हैं। उन्होंने मृन्मुद्राओं पर अंकित लिपि को पढ़ने का दावा करते हुए यह भी कहा है कि सील क्रमांक ४४९ पर 'जिनेश्वर' शब्द का उल्लेख है "It may also be noted that inscription on the indus seal No. 449 reads according to decipherment Jinesh.” (Indian Historical Quarterly, Vol. VIII, No. 250)15 विश्रुत वैदिक विद्वान् डॉ० मंगलदेव शास्त्री ने भारत की दो सांस्कृतिक धाराओंवैदिकधारा और श्रमणधारा के पारस्परिक भेद का विवेचन करते हुए लिखा है"ऋषि-सम्प्रदाय और मुनि-सम्प्रदाय के सम्बन्ध में, संक्षेप में, हम इतना ही कहना चाहते हैं कि दोनों की दृष्टियों में हमें महान् भेद प्रतीत होता है। जहाँ एक का झुकाव (आगे चलकर) हिंसामूलक मांसाहार और तन्मूलक असहिष्णुता की ओर रहा है, वहीं दूसरी का अहिंसा तथा तन्मूलक निरामिषता तथा विचार-सहिष्णुता (अथवा अनेकान्तवाद) की ओर रहा है। --- इनमें से एक मूल में वैदिक और दूसरी मूल में प्राग्वैदिक प्रतीत होती है।"१६ इसका समर्थन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासविद् एवं राष्ट्रकवि स्व० श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' लिखते हैं-"इस अनुमान की पुष्टि इस बात से भी होती है कि महंजोदरो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और जैनमार्ग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है, जैसे कालान्तर में, वह शिव के साथ समन्वित हो गयी। इसी दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्तियुक्त नहीं दीखता कि ऋषभदेव, वेदोल्लिखित होने पर भी, वेद-पूर्व हैं।" (संस्कृति के चार अध्याय / पृ.३३)। ___ 'दिनकर' जी एक स्थान पर और लिखते हैं-"ऋषभदेव की कृच्छ्र साधना का मेल ऋग्वेद की प्रवृत्तिमार्गी धारा से नहीं बैठता। वेदोल्लिखित होने पर भी ऋषभदेव वेद-पूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं। जब आर्य इस देश में फैले, उससे पहले ही यहाँ वैराग्य, कृच्छ्र साधना, योगाचार और तपश्चर्या की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी। इस प्रथा का एक विकास जैनधर्म में हुआ और दूसरा शैवधर्म में। ऋषभदेव भी योगिराज १४. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास / पूर्वपीठिका / पृ.१०२ से उद्धृत। 15. मुनि श्री प्रमाणसागरकृत 'जैनधर्म और दर्शन' पृष्ठ ३४ से उद्धृत। १६. भारतीय संस्कृति का विकास : वैदिक धारा / पृ. ११-१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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