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अ०५/प्र०२
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३९५ the Indus Seals and Images of Jinas in the Kāyotsarga posture. The name Rsabha means bull, and the bull is the emblem of Jina Rsabha."(p.159)
अनुवाद "सिन्धुघाटी की अनेक सीलों में उत्कीर्ण देवमूर्तियाँ न केवल बैठी हुई योगमुद्रा में हैं और सुदूर अतीत में सिन्धुघाटी में योग के प्रचलन की साक्षी हैं, अपितु खड़ी हुई देवमूर्तियाँ भी हैं, जो कायोत्सर्गमुद्रा को प्रदर्शित करती हैं।" (पृ. १५९)।
"कार्योत्सर्ग (देह-विसर्जन) मुद्रा विशेषतया जैन मुद्रा है। यह बैठी हुई नहीं, खड़ी हुई है। 'आदिपुराण' के अठारहवें अध्याय में जिनों में प्रथम-जिन ऋषभ, या वृषभ की तपश्चर्या के प्रसंग में कायोत्सर्गमुद्रा का वर्णन हुआ है।" (पृ. १५८)।
"कर्जन म्यूजियम ऑफ आर्किओलॉजी, मथुरा में सुरक्षित एक प्रस्तर-पट्ट पर उत्कीर्ण चार मूर्तियों में से एक ऋषभ जिन की खड़ी हुई मूर्ति कायोत्सर्गमुद्रा में है (इस लेख की आकृति १२)। यह ईसा की द्वितीय शताब्दी की है। मिस्र के आरम्भिक राजवंशों के समय की शिल्प-कृतियों में भी दोनों ओर हाथ लटकाये खड़ी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हैं। यद्यपि इन प्राचीन मिस्री मूर्तियों और यूनान की कुराई मूर्तियों की मुद्राएँ भी वैसी ही हैं, तथापि वह देहोत्सर्गजनित नि:संगता, जो सिन्धुघाटी की सीलों पर अंकित मूर्तियों तथा कायोत्सर्ग ध्यानमुद्रा में लीन जिनबिम्बों में पायी जाती है, इनमें अनुपस्थित है। वृषभ का अर्थ है बैल और यह बैल वृषभ या ऋषभ जिन का चिह्न (पहचान) है।" (पृ. १५९)।१३
प्रो० चन्दा के इस मत को मान्यता देते हुए डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी ने लिखा है
"उन्होंने (प्रो० चन्दा ने) ६ अन्य मुहरों पर खड़ी हुई मूर्तियों की ओर भी ध्यान दिलाया है। फलक १२ और ११८ आकृति ७ (मार्शलकृत मोहेंजोदड़ो) कायोत्सर्ग नामक योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेषरूप से मिलती है, जैसे मथुरा-संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर श्री ऋषभ-देवता की मूर्ति में। ऋषभ का अर्थ है बैल, जो आदिनाथ का लक्षण है। मुहर संख्या EG.H. फलक दो पर अंकित देवमूर्ति में एक बैल ही बना है, संभव है यह ऋषभ का ही पूर्वरूप हो। यदि ऐसा हो तो शैवधर्म की तरह जैनधर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धुसभ्यता तक चला जाता है। इससे सिन्धुसभ्यता एवं ऐतिहासिक 13. 'Sind Five Thousand Years Ago' by Ramprasad Chanda; Modern Review,
Calcutta, August, 1932; pp. 158, 159. (एलाचार्य मुनि विद्यानन्द : मोहन-जो-दडो : जैन परम्परा और प्रमाण / आवरण पृष्ठ ४ से उद्धत)।
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