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४०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०२ करते हैं, उनकी अभिलाषाएँ पूरी हो जाती हैं। दूर और निकटवर्ती सभी स्थानों के जन उनके प्रति बहुत अधिक भक्ति का प्रदर्शन करते हैं। छोटे और बड़े सभी समानरूप से उसका दर्शन पाकर धार्मिक उत्साह से भर जाते हैं। वे तीर्थिक अपने मन, वचन
और काय का संयम करके स्वर्गीय आत्माओं से उन पवित्र मन्त्रों का लाभ करते हैं, जिनके द्वारा वे आधि-व्याधियों की रोकथाम और रोगियों की चिकित्सा करते हैं। क्षुनदेव (शुन अथवा शिश्नदेव) संभवतः वे तीर्थंकर अथवा उनके अनुयायी थे, जिन्होंने अहिंसा-सन्देश के लिए सुविख्यात जैनधर्म के सिद्धान्तों को प्रकाशित किया।
"यूअनच्वांग के यात्रावृत्तान्त अफगानिस्तान तक में जैनधर्म के प्रसार की साक्षी देते हैं। बुद्ध भगवान् की जीवनचर्या के अध्ययन से पता लगता है कि उनके विरोधी छह महान् तीर्थिक थे : पूर्णकश्यप, अजितकेश, गोशाल, कात्यायन, निग्रंथ-नाथपुत्र
और संजय। उक्त तालिका में गोशाल आजीविकपन्थ का प्रवर्तक गोशाल है और निर्ग्रन्थनाथपुत्र २४ वें जैनतीर्थंकर महावीर का नाम है। इस प्रकार यूअनच्चांग के दिये हुए 'क्षुनदेव' के वृत्तान्त से स्पष्ट है कि वह संभवतः नग्न जैन तीर्थंकर की ओर ही संकेत कर रहा है। तीर्थिक शब्द भी तीर्थंकर का ही द्योतक है। अफगानिस्तान में जैनधर्म के प्रसार की बात निःसन्देह एक नई खोज है। 'क्षुन' शब्द (संभवतः 'शुन', 'शिन') 'शिश्नदेव' का ही रूपान्तर है। जब हम ऋग्वेद के काल की ओर देखते हैं तो हमें पता लगता है कि ऋग्वेद दो सूक्तों में 'शिश्न' शब्द द्वारा नग्न देवताओं की ओर संकेत करता है। इन सूक्तों में शिश्नदेवों से अर्थात् नग्नदेवों से यज्ञों की सुरक्षा के लिए इन्द्र का आह्वान किया गया है
न यातव इन्द्र जूजुवुर्नो न वन्दना शविष्ठ वेद्याभिः।
स शर्धदर्यो विषुणास्य जन्तोर्मा शिश्नदेवा अपि गुर्ऋतं नः॥ ७/२१/५॥ अनुवाद- "हे इन्द्र! हे शक्तिमान् देव! न तो दुष्टात्माओं ने हमें अपने कुचक्रों से प्रेरित किया है, न राक्षसों ने। हमारा सच्चा देव हमारे शत्रुओं को वश में करे। शिश्नदेव हमारे पवित्र यज्ञ के समीप न आवें।"
स वाजं यातापदुष्पदा यन्त्स्वर्षाता परि षदत्सनिष्यन्।
अनर्वा यच्छतदुरस्य वेदो नञ्छिश्नदेवाँ अभि वर्पसा भूत्॥१०/९९/३॥ अनुवाद-"वह (इन्द्र) अत्यन्त शुभ मार्ग से युद्ध के लिए जाता है। उसने स्वर्ग के प्रकाश को जीतने के लिए कठिन परिश्रम किया, उसे पाने को वह बहुत उत्सुक था। उसने चालाकी से शिश्नदेवों को मारकर शतद्वारोंवाले दुर्ग की निधि पर अधिकार कर लिया।"
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