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________________ [ तिरपन ] १. गृध्रपिच्छाचार्यकृत दिगम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र को, जिसे पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीयग्रन्थ माना है और श्वेताम्बर - परम्परा श्वेताम्बरग्रन्थ मानती है, उसे डॉ० सागरमल जी ने उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा अर्थात् श्वेताम्बर -यापनीयमातृपरम्परा का ग्रन्थ घोषित किया है । २. आचार्य सिद्धसेनकृत सन्मतिसूत्र भी दिगम्बरग्रन्थ है । उसे श्वेताम्बर अपनी परम्परा का ग्रन्थ मानते हैं, किन्तु डॉ० सागरमल जी ने उसे भी उत्तरभारतीय सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा में रचित बतलाया है। इसके विपरीत डॉ० ए० एन० उपाध्ये और उनका अनुसरण करनेवाली श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने उसकी यापनीयग्रन्थ के रूप में पहचान की है। ग्रन्थसार इस प्रकार १६ दिगम्बर ग्रन्थों को यापनीय परम्परा का और २ ग्रन्थों को यापनीयपरम्परा का भी, श्वेताम्बरपरम्परा का भी तथा श्वेताम्बरों और यापनीयों की कपोलकल्पित मातृ-परम्परा का भी बतलाया गया है। श्वेताम्बरमुनि श्री हेमचन्द्रविजय जी ने कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। अध्याय २ – काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन प्रथम- अध्यायोक्त काल्पनिक हेतुओं में से १९ वें और २०वें हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन वहीं पर कर दिया गया है। छठे हेतु की कपोलकल्पितता का उद्घाटन आठवें अध्याय में, ११वें हेतु की कपोलकल्पितता का तीसरे अध्याय में, १३वें हेतु की कपोलकल्पितता का सातवें अध्याय में और १४, १५, १७ एवं १८ क्रमांकगत हेतुओं की कपोलकल्पितता का उद्घाटन दसवें अध्याय में किया गया है । १६वें और २१वें हेतुओं की कपोलकल्पितता ११वें अध्याय से लेकर २५ वें अध्याय तक पन्द्रह अध्यायों मे उद्घाटित की गयी है। इस द्वितीय अध्याय में क्रमांक १ से लेकर १० तक के एवं क्रमांक १२ के हेतुओं की कपोलकल्पितता का अनावरण किया गया है, जो इस प्रकार है १. श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (७वीं शती ई०) ने विशेषावश्यकभाष्य में घोषणा की है कि तीर्थंकरों ने निर्वस्त्रतीर्थ (दिगम्बरवेश से मुक्ति होने) का नहीं, अपितु सवस्त्रतीर्थ ( सवस्त्रवेश से मुक्ति होने) का उपदेश दिया है । इस हेतु के द्वारा उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यतः दिगम्बरमत निर्वस्त्रतीर्थ का समर्थक है, अतः वह तीर्थंकरप्रणीत नहीं है, अपितु तीर्थंकरोपदेश से विपरीत मत का प्रतिपादक होने से निह्नवमत (मिथ्यामत) है । किन्तु निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध होता है कि यह हेतु प्रमाणसिद्ध नहीं है, अतः कपोलकल्पित है क— श्वेताम्बरग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र ( २३ / २९) में कहा गया है कि भगवान् महावीर ने अचेलकधर्म का उपदेश दिया था और भगवान् पार्श्वनाथ ने अचेल - सचेल दोनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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