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३९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ ९.२. परस्परविरोधी-मान्यतावालों की एक ही मन्दिर में पूजा-उपासना असंभव
डॉक्टर सा० की उपर्युक्त मान्यता अयुक्तिसंगत एवं अव्यवहार्य भी है। जिन संघों के साधुओं का सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि की मान्यताओं के समर्थन
और विरोध के गंभीर मतभेद के कारण साथ-साथ रहना दूभर हो गया था, जिनमें एक साधुसंघ तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री मानता था और दूसरा पुरुष, जो एक-दूसरे के आगमों को स्वकल्पित बतलाते थे और एक-दूसरे के मत को मिथ्यामत, उनका किसी एक मन्दिर में प्रतिदिन पूजा-उपासना करना संभव नहीं था। क्योंकि धार्मिक विरोधियों का धार्मिक स्थल और धार्मिक क्रियाओं में दैनिक सान्निध्य धार्मिक मतभेदों की याद दिलाता है और उन्हें प्रकट होने का अवसर देता है, जिससे विवाद और कलह अवश्यम्भावी है। तथा सामूहिक मन्दिर और उसे दान में मिली सम्पत्ति स्वामित्व के संघर्ष को जन्म देती है, जो हिंसात्मक प्रवृत्तियों में परिणत हो जाता है। इसलिए विभक्त हुए विरोधी सम्प्रदाय ऐसे अवसरों को टालते हैं, अर्थात् अपने पूजा-उपासना के स्थान भी अलग कर लेते हैं। इन स्थानों को अलग करना कठिन नहीं होता। एक ही श्रीमन्त अनुयायी या भक्त राजा संघप्रमुख का संकेत पाते ही नया मन्दिर खड़ा कर देता है। ऐसे उदाहरण हम पूर्वोद्धृत अभिलेखों में देख चुके हैं। अतः ईसा की छठी शती के पूर्व विभिन्न संघों के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं थी कि उन्हें कलहकारणभूत एक ही मन्दिर में पूजा-उपासना के लिए मजबूर होना पड़ता। इसलिए डॉ० सागरमल जी तथा अन्य विद्वानों की यह धारणा कि छठी शती ई० के पूर्व तक दिगम्बर और श्वेताम्बर एक ही मन्दिर में पूजा-अर्चना करते थे, उपर्युक्त शिलालेखीय प्रमाणों, साम्प्रदायिक मनोविज्ञान एवं श्रीमन्तों तथा राजाओं के मन्दिर निर्माण सम्बन्धी औदार्यपूर्ण इतिहास के विरुद्ध है। ९.३. पूर्वकाल में श्वेताम्बरसंघ अनग्न-अचेल-जिनप्रतिमा का पूजक
अब प्रश्न उठता है कि जब श्वेताम्बरसम्प्रदाय में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण हो नहीं सकता था और सवस्त्र प्रतिमाओं का निर्माण छठी शती ई० से शुरू हुआ है, तब उसके पूर्व वे कैसी प्रतिमाओं का पूजन करते थे? डॉक्टर सा० ने यही प्रश्न अपने उपर्युक्त लेख में उठाया है।
बीसवीं शती ई० के स्थानकवासी-परम्परा के श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी ने अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि छठी शती ई० के पूर्व श्वेताम्बरसंघ में मूर्तिपूजा का प्रचलन ही नहीं था। यद्यपि वे अमूर्तिपूजक स्थानकवासीपरम्परा के थे, तथापि उनके तर्क विचारणीय हैं। (देखिये, आगे प्रकरण ३, शीर्षक २)। उपर्युक्त शिलालेखों से भी यह तथ्य सामने आता है कि छठी शती ई० के
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