________________
अ०५ / प्र० १
पुरातत्त्व में दिगम्बर- परम्परा के प्रमाण / ३९१
इन अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि ईसा की छठी शती के पहले भी विभिन्न जैनसंघ अपने-अपने पृथक् मन्दिर बनवाते थे और राजा-महाराजा भी जिनमन्दिर बनवाकर किसी एक संघ को उसका अधिकार सौंप देते थे।
मृगेशवर्मा के हल्सी-अभिलेख (क्र.९९ / ४७० - ४९० ई०) में केवल यह उल्लेख है कि उसने श्रीविजयपलाशिका में एक जिनालय का निर्माण कराया और यापनीयों, निर्ग्रन्थों तथा कूर्चकों को भूमिदान किया । उसमें मन्दिर की व्यवस्था किसी संघविशेष के आचार्य को सौंपने का निर्देश नहीं है, तथापि पूर्वोक्त उदाहरणों को देखते हुए वह जिनालय इन तीन संघों में से किसी न किसी संघ के आचार्य के अधिकार में रहा होगा । ( अभिलेख का मूलपाठ अध्याय २ के प्रकरण ६ में द्रष्टव्य है) ।
इसी प्रकार श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के देवगिरि - अभिलेख (क्र.९८ ) में पूर्वनिर्मित जिनमन्दिर तथा श्वेतपटमहाश्रमणसंघ एवं निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ को कालवंगग्राम का एकएक भाग प्रदान किये जाने का वर्णन है, किन्तु उक्त जिनमन्दिर पर किस संघ का अधिकार था, इसका उल्लेख नहीं किया गया है । तथापि उपर्युक्त उदाहरणों से सिद्ध है कि उसका भी स्वामित्व श्वेतपटमहाश्रमणसंघ या निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ के हाथ में रहा होगा। जब मूलसंघ अपने मन्दिर अलग बना रहा हो, यापनीय, कूर्चक और अहरिष्टि संघों को राजा-महाराजा अलग- अलग मन्दिर बनवाकर सौंप रहे हों, जिन पर केवल उन्हीं संघों की आज्ञा चलती हो, तब श्वेतपटश्रमणसंघ, यदि मूर्तिपूजक था, तो जिनमन्दिर अलग से न बनवाये या राजाओं के द्वारा बनवाकर उसे प्रदान न किये जायँ, ऐसा नहीं हो सकता था । मानवस्वभावगत साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में ऐसा होना असंभव है । अतः यदि तत्कालीन श्वेतपटश्रमणसंघ मूर्तिपूजक था, तो अवश्य ही उसके भी मन्दिर पृथक् रहे होंगे और उनमें श्वेताम्बर - आगम-कथित निरूप को प्रतिबिम्बित करनेवाली जिनप्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित की गयी होंगी ।
श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा ने एक ही जिनालय को कालवंग ग्राम का एक भाग दान में दिया था, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उस स्थान में एक ही जिनमन्दिर था । मन्दिर तो वहाँ दोनों संघों के रहे होंगे, किन्तु राजा ने संघों में तो वहाँ उपस्थित दोनों संघों को दान दिया था, परन्तु मन्दिरों में केवल उस था, जिसका वह स्वयं अनुयायी था । जिस संघ का वह उसका विशेष अनुराग होना स्वाभाविक था ।
इन शिलालेखीय प्रमाणों से डॉक्टर सा० की यह मान्यता मिथ्या सिद्ध होती है कि छठी शती ई० के पूर्व दिगम्बर, श्वेताम्बर, यापनीय, कूर्चक आदि संघों के मन्दिर और प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न नहीं थीं ।
Jain Education International
संघ के मन्दिर को दिया अनुयायी था, उसके प्रति
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org