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________________ ३९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०१ क्रियार्थं तदवशिष्टं सर्वसङ्घभोजनायेति---कुन्दूरविषये वसुन्तवाटक---कूर्चकानाम् वारिषेणाचार्यसङ्घहस्ते चन्द्रक्षान्तं प्रमुखं कृत्वा दत्तवान्।" (हल्सी-अभिलेख क्र. १०३/ जै.शि.सं./ मा.च/ भा.२)। लगभग इसी समय के देवगिरि-अभिलेख (क्र.१०५) में कदम्बवंश की दूसरी शाखा के युवराज देववर्मा के द्वारा त्रिपर्वत के ऊपर का कुछ क्षेत्र अरहन्त भगवान् के चैत्यालय के भग्नसंस्कार ( मरम्मत ), पूजा और प्रभावना के लिए यापनीयसंघ को दान किये जाने का उल्लेख है। यथा "--- देववर्मयुवराजः --- अर्हतः भगवतः चैत्यालयस्य भग्नसंस्कारार्चनमहिमा) यापनीय (स)-वेभ्यः सिद्धकेदारे --- द्वादश निवर्त्तनानि क्षेत्रं दत्तवान्।" (देवगिरि-अभिलेख क्र./ १०५ / जै. शि. सं./ मा. च./भा.२)। इसी प्रकार सन् ४८८ ई० के अल्तेम (कोल्हापुर)-अभिलेख में उल्लेख किया गया है कि चालुक्य नरेश जयसिंह के सामन्त सेन्द्रकवंशी सांमियार ने अलक्तकनगर में एक जिनेन्द्रायतन बनवाया और उसकी पूजा आदि के लिए यापनीयसंघ के कनकोपलसम्भूत-वृक्षमूलगण के आचार्य जिननन्दी को कुछ भूमि और ग्राम दान किये। यथा __ "अलक्ताभिधाननगर्यां --- जिनेन्द्रायतनं भक्त्याकारयत् --- तन्जिनमन्दिरोपमक्रिये क्षेत्रं ददौ---कनकोपलसम्भूत-वृक्षमूलगणान्वये --- जिननन्द्याचार्यसूर्याय नगरांशत-लभोगांश्च प्रददौ।" (अल्तेम-अभिलेख / क्र.१०६ / जै.शि.सं./ मा.च./ भा.२)। इसी समय के या इससे कुछ पूर्व के हल्सी-अभिलेख (क्र. १०४) में स्पष्ट लिखा है कि महाराज हरिवर्मा ने पलाशिकानगर में स्थित चैत्यालय की पूजा, संस्कार (मरम्मत) आदि के लिए 'मरदे' नामक ग्राम का दान किया था। वह चैत्यालय अहरिष्टि नाम के श्रमणसंघ की सम्पत्ति था और उस पर आचार्य धर्मनन्दी की आज्ञा चलती थी "श्री हरिवर्मा---पलाशिकाधिष्ठाने अहरिष्टि-समाह्वय-श्रमणसङ्घवस्तुनः धर्मानन्द्याचार्याधिष्ठितप्रामाण्यस्य चैत्यालयस्य पूजासंस्कारनिमित्तं साधुजनोपयोगार्थञ्च --- मरदे ग्रामं दत्तवान्।" (हल्सी-अभिलेख / क्र. १०४ / जै. शि. सं./ मा. च./ भा.२)। अँगरेजी अनुवाद-"--- the temple which was the property of the sect of Śramaņas called Aharishți and the authority of which was superintended by the Acharya Dharmanandi." (Sanskrit And old Canarese Inscriptions, No. XXXVI, The Indian Antiquary, vol.VI-1877, p.32). Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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