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________________ अ०५/प्र०१ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३८९ ही मन्दिर में नग्न जिनप्रतिमाओं की पूजा-उपासना करते थे। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने लिखा है-"पटना के लोहानीपुर-क्षेत्र से मिली जिनप्रतिमा इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि जैनपरम्परा में महावीर के निर्वाण के लगभग १५० वर्ष पश्चात् ही जिनप्रतिमाओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि ईसवीपूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की छठी शताब्दी तक श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं के अनुरूप अलग-अलग प्रतिमाओं का निर्माण नहीं होता था। श्वेताम्बरदिगम्बर-परम्परा के भेद के बाद भी लगभग चार सौ साल का इतिहास यही सूचित करता है कि वे सब एक ही मन्दिर में पूजा-उपासना करते थे। हल्सी के अभिलेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ श्वेतपट्टमहाश्रमणसंघ, निर्ग्रन्थ महाश्रमणसंघ और यापनीयसंघ, तीनों ही उपस्थित थे, किन्तु उनके मन्दिर और प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न नहीं थे। राजा ने अपने दान में यह उल्लेख किया है कि इस ग्राम की आय का एक भाग जिनेन्द्र-देवता के लिए, एक भाग श्वेतपट्टमहाश्रमणसंघ हेतु और एक भाग निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ के हेतु उपयोग किया जाय। यदि उनके मन्दिर व मूर्ति भिन्नभिन्न होते, तो ऐसा उल्लेख संभव नहीं होता।" ('श्रमण'/ जुलाई-दिसम्बर २००५ / पृ.६६)। डॉक्टर सा० का यह कथन समीचीन नहीं है। छठी शती ई० के पूर्व भी विभिन्न जैन सम्प्रदायों के द्वारा अपने-अपने जिनमन्दिर बनवाने तथा राजाओं के द्वारा भी बनवाकर किसी एक सम्प्रदाय को सौंपने की प्रथा थी। ई० सन् ३७० के नोणमंगल-ताम्रपत्रलेख (क्र० ९०) के अनुसार मृदुकोत्तूरदेश के पेब्बोलल्लग्राम में मूलसंघ (निर्ग्रन्थसंघ) ने अर्हदायतन (जैनमन्दिर) का निर्माण कराया था और उसे गंगकुल के राजा माधववर्मा ने भूमि और कुमारपुर ग्राम दान किया था। (देखिये, आगे प्रकरण ४)। नोणमंगल के ही ४२५ ई० के ताम्रपत्रलेख (क्र० ९४) में कहा गया है कि आचार्य चन्द्रनन्दी जिसके प्रमुख थे, उस मूलसंघ के द्वारा उरनूर नामक स्थान में अर्हदायतन बनवाया गया, जिसे राजा कोङ्गणिवर्मा ने कोरिकुन्ददेश का वेन्नेल्करनि गाँव प्रदान किया था। (देखिये, आगे प्रकरण ४)। लगभग ४९० ई० के हल्सी-अभिलेख (क्र० १०३) में लिखा है कि कदम्बराजवंश के महाराजा हरिवर्मा ने सिंहसेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा पलाशिका में निर्मापित अर्हदायतन की आष्टाह्निकपूजा एवं सर्वसंघ के भोजन के लिए 'वसुन्तवाटक' नामक गाँव कूर्चकों के वारिषेणाचार्यसंघ के हाथ में चन्द्रक्षान्त को प्रमुख बनाकर दान किया "महाराजः श्रीहरिवर्मा --- पलाशिकायां भारद्वाजसगोत्रसिंहसेनापति-सुतेन मृगेशेन कारितस्याहदायतनस्य प्रतिवर्षमाष्टाह्निकमहामह-सततच (?) रूपलेपन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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