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________________ ३८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०१ के द्वारा वस्त्र के समान ही आच्छादित रहता है और चर्मचक्षुओं के द्वारा दिखाई नहीं देता। वस्तुतः तीर्थंकरों के सम्बन्ध में यह कल्पना अतिशय के रूप में ही की जाती है। लेकिन चाहे श्वेताम्बरपरम्परा हो या दिगम्बरपम्परा, अतिशयों की यह कल्पना तीर्थंकरों के वैशिष्ट्य को ही सूचित करने के लिए प्रचलित हुई है। फिर चाहे यह बात तीर्थंकर के सम्बन्ध में सत्य हो, किन्तु मूर्ति के सम्बन्ध में सत्य नहीं है। वैज्ञानिक सत्य यह है कि यदि मूर्ति नग्न है, तो वह नग्न ही दिखायी देगी।" (वही/ पृ.६४-६५)। पर, प्रश्न यह है कि तीर्थंकर की मूर्ति नग्न होगी ही क्यों? जब उनकी नग्नता अतिशय के प्रभाव से आच्छादित हो जाती है, तब मूर्ति में नग्नता का प्रदर्शन क्यों किया जायेगा? जिस अशोभनीय नग्नरूप को आच्छादित करने के लिए अतिशय की कल्पना की गयी है, वह अशोभनीय रूप जिनप्रतिमा में प्रदर्शित क्यों किया जायेगा? जिनेन्द्र भगवान् की नग्नता दिखायी नहीं देती, इसलिए उनकी प्रतिमा भी ऐसी ही बनायी जानी चाहिए, जिसमें नग्नता दिखाई न दे। इस तरह मूर्ति अनग्न होगी, तो अनग्न ही दिखाई देगी। डॉक्टर सा० के तर्क से ऐसा लगता है कि तीर्थंकर के अनग्न दिखाई देने पर भी उनकी मूर्ति अपने-आप नग्न बन जाती है, इसलिए वे मूर्ति में नग्न ही दिखायी देते हैं। किन्तु तीर्थंकर की मूर्ति अपने-आप नहीं बनती, शिल्पी से बनवाने पर बनती है। अतः यदि शिल्पी से अनग्न बनवायी जाय, तो वह अनग्न ही बनेगी और तब वह अनग्न ही दिखायी देगी। श्वेताम्बरमत में स्त्रीतीर्थंकर (मल्ली) की दृष्टि से भी तीर्थंकर के गुह्यांगों के अदृश्य रहने की कल्पना एवं उनकी प्रतिमा का गुह्यांगरहित बनाया जाना अपरिहार्य है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मथुरा की नग्न जिनप्रतिमाओं के निर्मापक श्वेताम्बराचार्य नहीं थे, क्योंकि यदि वे होते, तो श्वेताम्बर-आगमों के अनुसार वे अनग्न दिखायी देनेवाले 'जिन' की अनग्न दिखायी देनेवाली ही प्रतिमा बनवाते। अतः सिद्ध है कि उक्त नग्न जिनप्रतिमाओं के निर्माता अर्धफालकसम्प्रदाय के आचार्य थे। मथरा की उक्त प्रतिमाओं के श्वेताम्बरों द्वारा निर्मापित न होने का दूसरा प्रमाण यह है कि उनके पादपीठ में मूर्तित साधुओं का वेश श्वेताम्बरागमों में वर्णित तत्कालीन साधुओं के वेश के अनुरूप नहीं है। इसका भी स्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है। उसे श्वेताम्बरसाधुओं के पूर्वज साधुओं का वेश नहीं माना जा सकता, क्योंकि श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का उदय जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् ही हो गया था। इसके प्रमाण षष्ठ अध्याय में द्रष्टव्य हैं। ९.१. छठी शती ई० के पूर्व भी सभी संघों के मन्दिर अलग-अलग थे मथुरा की प्राचीन प्रतिमाओं को श्वेताम्बर-प्रतिमा सिद्ध करने के लिए डॉक्टर सा० कहते हैं कि छठी शती ई० के पूर्व तक दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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