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अ०५/प्र०१
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३८७ जिनप्रतिमाओं का अंकन लगभग छठी-सातवीं शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है। किन्तु इसके पूर्व की स्थिति क्या थी, इस सम्बन्ध में वे प्रायः चुप हैं। यदि श्वेताम्बरपरम्परा का अस्तित्व उसके पूर्व में भी था, तो वे किन प्रतिमाओं की पूजा करते थे?" ('श्रमण'। जुलाई-दिसम्बर २००५ / पृ ६६-६७)। तत्पश्चात् डॉक्टर सा० ने मथुरा के कंकाली टीले से उपलब्ध ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी की जिनप्रतिमाओं पर जो कुल, शाखा, गण आदि उत्कीर्ण हैं, उनके आधार पर कहा है कि वे श्वेताम्बराचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थीं और छठी शताब्दी ई० के पूर्व तक श्वेताम्बर भी दिगम्बरों की तरह नग्न जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना एवं उपासना करते थे। इतना ही नहीं वे लिखते हैं कि "इन ऐतिहासिक साक्ष्यों से मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि ईसा की छठी शती तक दोनों ही परम्पराओं के मन्दिर और मूर्तियाँ एक ही होते थे।" (वही/पृ.६८)।
डॉक्टर सा० की पहली मान्यता का निरसन पूर्व में किया जा चुका है। उसके अप्रामाणिक होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि श्वेताम्बर-आगमों के अनुसार तीर्थंकरों की नग्नता अतिशय के प्रभाव से प्रच्छादित रहती है, जिससे उनका नग्नरूप दिखाई नहीं देता। अतः उनकी प्रतिमा भी अनग्न बनायी जाने पर ही जिनप्रतिमा कहला सकती है। तत्त्वनिर्णयप्रासाद के कर्ता श्वेताम्बरमुनि श्री आत्माराम जी के वचन पूर्व (इसी प्रकरण के शीर्षक ३) में उद्धृत किये जा चुके हैं, जिनमें उन्होंने कहा है कि "जिनेन्द्र के तो अतिशय के प्रभाव से लिंगादि दिखाई नहीं देते, किन्तु दिगम्बरों के द्वारा निर्मापित जिनप्रतिमा में लिंगादि दिखाई देते हैं, अतः वह जिनबिम्ब सिद्ध नहीं होती।" दिगम्बरपरम्परा में भी यही मान्यता है कि जिनप्रतिमा जिनसदृश होने पर ही जिनबिम्ब कहलाती है और वन्दनीय होती है। पं० बनारसीदास जी ने वाणारसीविलास में कहा है
जिनप्रतिमा जिन सारिसी कही जिनागम माहिं। रंचमात्र दूषण लगै बंदनीक सो नाहिं।
___('विद्वज्जनबोधक'। पृ.३४५ से उद्धृत) चूँकि मथुरा की उक्त जिनप्रतिमाएँ अनग्न नहीं हैं, अपितु नग्न हैं, अतः वे श्वेताम्बरमान्य जिनरूप के अनुसार श्वेताम्बरीय जिनप्रतिमाएँ नहीं हैं। वे अर्धफालकसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी थीं। ___डॉक्टर सा० ने भी स्वीकार किया है कि तीर्थंकरों की नग्नता अतिशय के प्रभाव से अदृश्य रहती है, तथापि उन्हें नग्न प्रतिमा के निर्माण में कोई विसंगति दिखाई नहीं देती। वे लिखते हैं-"प्रो० रतनचन्द्र जी ने 'प्रवचनपरीक्षा' का एक उद्धरण भी दिया है। उनका यह कथन है कि जिनेन्द्र भगवान् का गुह्यप्रदेश शुभप्रभामण्डल
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