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________________ ३८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०१ निष्कर्ष यह कि नग्न जिनप्रतिमाएँ दिगम्बर-परम्परा की देन हैं। उन्हें ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के परिणामस्वरूप दिगम्बरसंघ से उद्भूत हुए अर्धफालक सम्प्रदाय ने अपना लिया था, जिसका प्रमाण मथुरा की उपर्युक्त जिनप्रतिमाएँ हैं और ईसा की चौथी शती में श्वेताम्बरसंघ से उत्पन्न हुए यापनीयसम्प्रदाय ने भी नग्न जिनप्रतिमाओं को अंगीकृत कर लिया था। यह श्रुतसागरसूरि के यापनीयों को लक्ष्य कर किये गये इस कथन से सिद्ध है कि पाँच जैनाभासों द्वारा प्रतिष्ठित नग्नमूर्ति भी अपूज्य है-"या पञ्चजैनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चार्चनीया च (बो.पा./ टीका / गा.१०)। प्रेमी जी ने भी लिखा है-"श्रतसागर के इस वचन से मालम होता है कि यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ नग्न होती थी, क्योंकि उनके विश्वास के अनुसार यापनीय पाँच जैनाभासों के अन्तर्गत हैं।"(जै.सा.इ./ द्वि.सं./ पा.टि./ पृ.५९)। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के द्वारा आरम्भ में ऐसी जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया गया. जो वस्त्रयक्त न होते हए भी नग्न नहीं दिखती थी अर्थात् उनमें पुरुषचिह्न (तीर्थंकर मल्ली के प्रसंग में स्त्री चिह्नों) की रचना नहीं की जाती थी। आगे चलकर उनके सामने अंचलिका रखी जाने लगी। कालान्तर में प्रतिमा को देवदूष्य वस्त्र से आच्छादित किया जाने लगा। तत्पश्चात् वीतराग जिनप्रतिमा राजसी वेशभूषा से अलंकृत की जाने लगी। इस प्रकार नग्न जिनप्रतिमा का सम्बन्ध श्वेताम्बर-परम्परा से कभी नहीं रहा। श्वेताम्बर-मस्तिष्क में नग्न जिनप्रतिमा की कल्पना आ ही नहीं सकती, क्योंकि उनकी मान्यता है कि तीर्थंकर अपने प्रभामंडल के कारण नग्नरूप में दिखते ही नहीं हैं। छठी शती ई० के पूर्व श्वेताम्बरसंघ में अनग्न-अचेल जिनप्रतिमा की पूजा प्रस्तुत अध्याय का जब लिपिसंशोधन चल रहा था, तब श्रमण पत्रिका (जुलाईदिसम्बर २००५) में माननीय डॉ० सागरमल जी का एक लेख पढ़ने को मिला, जिसका शीर्षक था 'जिनप्रतिमा का प्राचीन स्वरूप : एक समीक्षात्मक चिन्तन।' इसमें मेरे एक पूर्वलेख की समीक्षा की गयी थी, जो जिनभाषित (मई २००३) के सम्पादकीय आलेख के रूप में प्रकाशित हुआ था और जिसका शीर्षक था 'दिगम्बरों की जिनप्रतिमा की पहचान के प्रमाण।' ___ डॉक्टर सा० ने अपने लेख में कहा है-"भाई रतनचन्द्र जी का यह कथन सत्य है कि ईसा की छठी शताब्दी से पहले जितनी भी जिनप्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं, वे सब सर्वथा अचेल और नग्न हैं। उनका यह कथन भी सत्य है कि सवस्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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