SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 579
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०५/प्र०१ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३८५ दसवीं सदी ई० से पूर्व के किसी ग्रन्थ या अभिलेख में अर्धफालकसम्प्रदाय का उल्लेख भले न हो, किन्तु मथुरा का उपर्युक्त शिल्प ईसा की प्रथम शताब्दी में उसके अस्तित्व का बोध प्रत्यक्ष रूप से कराता है। भले ही उसे अर्धफालक नाम से सम्बोधित न किया जाय, पर लक्षण तो शिल्प में उसी के विद्यमान हैं। अतः यद्यपि अर्धफालक-सम्प्रदाय के कुछ साधु अपनी उत्पत्ति के कुछ समय बाद ही दिगम्बरसंघ में वापिस लौट आये थे और कुछ साधु श्वेताम्बरसंघ में शामिल हो गये, तथापि उनका एक वर्ग कुषाणकाल तक और संभवतः उसके बाद भी कुछ समय तक अर्धफालक-सम्प्रदाय के रूप में स्वतंत्र बना रहा। यद्यपि वह अर्धफालक धारण करता था, तो भी उसके सिद्धान्त श्वेताम्बर-सिद्धान्तों से काफी भिन्न थे। नग्नत्व के विषय में अर्धफालक-सम्प्रदाय की मान्यताएँ इतनी प्रतिकूल नहीं थीं, जितनी श्वेताम्बरों की हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं के नग्नरूप को वे बीभत्स, अश्लील, निर्लज्जता-जनक एवं स्त्रियों में कामविकारोत्पादक नहीं मानते थे, अपितु वीतरागता, निस्संगता, शिशुवत् निर्विकारता एवं आत्मिक सौन्दर्य को अभिव्यक्त करनेवाला मानते थे। वह उन्हें साक्षात् जिनबिम्ब प्रतीत होता था, अतः वह उनके लिए पूज्य था। इसीलिए वे नग्न जिन प्रतिमाओं का प्रतिष्ठापन कराते थे और उनकी पूजा करते थे। अपनी नग्नता भी अर्धफालक साधुओं को सर्वथा अश्लील और निर्लज्जता-जनक प्रतीत नहीं होती थी, इसलिए अर्धफालक धारण करने से नितम्बभाग के खुले रह जाने पर उन्हें संकोच नहीं होता था। इसके विपरीत श्वेताम्बर-सम्प्रदाय तीर्थंकरों की नग्न प्रतिमाओं को अश्लील, बीभत्स, निर्लज्जता-जनक एवं स्त्रियों में काम विकारोत्पादक मानता है तथा उन्हें जिनबिम्ब स्वीकार नहीं करता। इस कारण वे श्वेताम्बरों के लिए अपूज्य हैं। इसीलिए वे न तो नग्न जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराते हैं, न ही उनको पूजते हैं। श्वेताम्बरसाधु अपने गुह्यांगों का रंचमात्र भी अनावृत रहना अश्लील मानते हैं, इसलिए प्रारंभ में वे चोलपट्टक के द्वारा गुह्यांग को पूर्णतः ढंक कर रखते थे, किन्तु धीरे-धीरे दो वस्त्रों के द्वारा कण्ठ से लेकर घुटनों तक का भाग आच्छादित रखने लगे हैं। यह अर्धफालक-सम्प्रदाय का श्वेताम्बर-सम्प्रदाय से महान् सैद्धान्तिक मतभेद था। यतः मथुरा के कुषाणकालीन शिल्प में नग्न जिनप्रतिमाओं के नीचे अर्धफालकधारी साधुओं का ही अंकन है, कटिवस्त्र एवं प्रावरणधारी श्वेताम्बर साधुओं का नहीं, इससे सिद्ध है कि मथुरा का कुषाणकालीन शिल्प श्वेताम्बर-सम्प्रदाय से सम्बन्ध नहीं रखता, अपितु अर्धफालक-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। जिन नग्न जिनप्रतिमाओं के नीचे अर्धफालकधारी साधु की आकृति निर्मित नहीं है, उनका सम्बन्ध दिगम्बरजैन-परम्परा से है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy