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३८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ यदि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में मथुराशिल्प में मूर्तित अर्धफालकधारी साधुओं के वेश को श्वेताम्बरसम्प्रदाय को जन्मदेनेवाले सम्प्रदाय का वेश माना जाय, तो श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का उत्पत्तिकाल तृतीय शताब्दी ई० सिद्ध होता है, जिससे स्वयं डॉक्टर सा० का यह पूर्वमत बाधित हो जाता है कि श्वेताम्बरसम्प्रदाय की उत्पत्ति विक्रमसंवत् १३६ या १३९ अर्थात् ई० सन् ७९ या ८२ में हुई थी। उन्होंने निम्नलिखित कथन में इस मत को प्रामाणिक माना है
"दिगम्बरपरम्परा में जैनसंघ के इस विभाजन की सूचना देनेवाला कोई प्राचीन ग्रन्थ नहीं है, मात्र ई० सन् ९४२ (वि० सं० ९९९) में देवसेन द्वारा रचित दर्शनसार है। इस ग्रन्थ के अनुसार विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्रदेश की वलभी नगरी में श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति हुई। इसमें यह भी कहा गया है कि श्रीकलश नामक श्वेताम्बरमुनि से विक्रमसंवत् २०५ में कल्याण में यापनीय संघ उत्पन्न हुआ। चूँकि 'दर्शनसार' आवश्यकमूलभाष्य की अपेक्षा पर्याप्त परवर्ती है, अतः उसके विवरणों की प्रामाणिकता स्वीकार करने में विशेष सतर्कता की आवश्यकता है, फिर भी इतना निश्चित है कि जब आवश्यकमूलभाष्य और दर्शनसार दोनों ही वि० सं० १३६ अथवा १३९ या वीरनिर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में संघभेद की घटना का उल्लेख करते हैं, तो एक-दूसरे से पुष्टि होने के कारण इस तथ्य को अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि विक्रमसंवत् की प्रथम शती के अन्त या द्वितीय शताब्दी के प्रारम्भ में जैनों में स्पष्टरूप से संघभेद हो गया था।" (जै. ध. या. स./ पृ.१७)।
इस कथन में डॉक्टर सा० ने स्वयं इस मान्यता को प्रामाणिक माना है कि श्वेताम्बर-सम्प्रदाय की उत्पत्ति विक्रम सं० १३६ या १३९ अर्थात् ईसवी सन् ७९ या ८२ में हुई थी। किन्तु इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति ईसा की तृतीय शती में सिद्ध करनेवाले उनके उपर्युक्त मत से उनका ही यह पूर्वमत बाधित हो जाता है और इस पूर्वमत से उनका उपर्युक्त उत्तरमत असंगत ठहरता है। इस तरह एक-दूसरे को बाधित करनेवाले इन परस्पर विरोधी मतों से डॉक्टर सा० के ये दोनों मत अप्रामाणिक सिद्ध होते हैं। अतः दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के आगमों में मान्य होने से यही मत प्रामाणिक सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरमत की उत्पत्ति जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् ही हो गयी थी (देखिये, षष्ठ अध्याय), फलस्वरूप प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० के मथुराशिल्प में मूर्तित अर्धफालकधारी साधुओं का सम्प्रदाय श्वेताम्बर सम्प्रदाय से उत्तरवर्ती था और यतः अर्धफालकधारी साधुओं का वेश श्वेताम्बरसाधुओं के वेश से भिन्न था तथा उनके उपकरणों की संख्या भी श्वेताम्बरसाधुओं के उपकरणों से अत्यल्प थी, इससे सिद्ध कि उनका सम्प्रदाय श्वेताम्बरसम्प्रदाय से पृथक् था।
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