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अ०५/प्र०१
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३८३ ___३. डॉक्टर सा० ने मथुराशिल्प में मूर्तित केवल अर्धफालक एवं रजोहरण या झोलीधारी साधु को उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के साधुओं का प्रतिनिधि मानकर कहा है कि श्वेताम्बर और यापनीय संघों के रूप में विभाजन के पूर्व उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के साधु अल्प-उपकरणधारी थे। किन्तु यह उनके ही पूर्वकथन के विरुद्ध है। उन्होंने पूर्व में लिखा है___ "वस्तुतः महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्रपात्रदि में वृद्धि होने लगी और अचेलकत्व की प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, तब उससे अचेलता के पक्षधर यापनीय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर, ऐसी दो धाराएँ निकलीं।" (जै.ध.या.स./ पृ.२४)।
इस प्रकार एक जगह वे उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ को अल्प-उपकरणधारी बतलाते हैं और दूसरी जगह बहु-उपकरणधारी। इसके अतिरिक्त वे उसे अचेल भी कहते हैं और सचेल भी।
किन्तु मथुरा के कुषाणकालीन शिल्प में मूर्तित साधुओं में न तो अचेलत्व के दर्शन होते हैं (क्योंकि उनके हाथ में अर्धफालक है), न ही वस्त्रपात्रादि उपकरणों की वृद्धि के। उनके पास केवल दो उपकरण हैं। अतः डॉक्टर सा० के स्वकीय वचनों से सिद्ध होता है कि मथुरा के कुषाणकालीन शिल्प में मूर्तित साधुसम्प्रदाय वह सम्प्रदाय नहीं है, जिससे उनके अनुसार सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बरसंघ का और अचेलता के पक्षधर यापनीयसंघ का उद्भव हुआ। श्वेताम्बरसम्प्रदाय का उद्भव जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् ऐकान्तिक अचेलमार्गी निर्ग्रन्थसंघ से हुआ था और अर्धफालक-सम्प्रदाय उसी निर्ग्रन्थसंघ से ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के परिणामस्वरूप उद्भूत हुआ था, जिसका अस्तित्व कुषाणकाल (ईसा की प्रथमद्वितीय शताब्दी) तक बना रहा। (देखिये, षष्ठ अध्याय)।
___डॉ० सागरमल जी ने लिखा है कि उक्त मुनिमूर्तियों के हाथ में मुखवस्त्रिका है, किन्तु मुखवस्त्रिका तो मुख पर होती है। उसी अवस्था में वह मुनिलिंग मानी जा सकती है अर्थात् मूर्ति के श्वेताम्बरीय होने की पहचान बन सकती है। हाथ में रखा हआ वस्त्रखण्ड मखवस्त्रिका ही है. यह कैसे सिद्ध होगा? तथा हाथ में वस्त्रखण्ड है भी नहीं। जिस मूर्ति को आर्यकृष्ण की प्रतिकृति कहा गया है, उसके एक हाथ की कलाई पर आगे की ओर तह किया हुआ अर्धफालक झूल रहा है और दूसरा हाथ कन्धे के ऊपर है, जिसमें पीछे की तरफ रजोहरण या झोली लटक रही है। मुखवस्त्रिका कहला सकने योग्य वस्त्रखण्ड किसी भी हाथ में नहीं है और मुख पर भी नहीं है। अन्य साधु-मूर्तियों के भी हाथ या मुँह पर मुखवस्त्रिका नहीं है। अतः डॉक्टर सा० का यह कथन प्रत्यक्ष प्रमाण से असिद्ध होता है कि मथुराशिल्प की मुनिमूर्तियों के हाथ में मुखवस्त्रिका है।
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