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अ०५/प्र०१
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३९३ पूर्व मूलसंघ (निर्ग्रन्थसंघ) ने अपने मन्दिर बनवाये और यापनीय, कूर्चक तथा अहरिष्टि संघों को राजाओं ने मन्दिर बनवाकर दिये, किन्तु श्वेतपटश्रमणसंघ द्वारा न तो स्वयं मन्दिर बनवाये जाने का उल्लेख किसी शिलालेख में है, न ही किसी राजा द्वारा बनवाकर उसे दिये जाने की चर्चा है। इससे श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी की इस मान्यता को बल मिलता है कि छठी शती ई० के पूर्व श्वेताम्बरपरम्परा में मूर्तिपूजा का प्रचलन नहीं था। तथापि मेरी मान्यता यह है कि छठी शती ई० के पूर्व भी श्वेताम्बरपरम्परा में मूर्तिपूजा का प्रचलन रहा होगा और जिनप्रतिमा का स्वरूप बिलकुल वैसा ही रहा होगा, जैसा कि श्वेताम्बर-आगमों में 'जिन' का रूप बतलाया गया है, अर्थात् गुह्यांगदर्शनरहित। श्वेताम्बरमुनि उपाध्याय धर्मसागर जी ने गिरनार-विवाद के पूर्व श्वेताम्बरपरम्परा में बनायी जानेवाली जिनप्रतिमाओं का स्वरूप ऐसा ही बतलाया है। (देखिये, पूर्वशीर्षक २ एवं ३)। डॉ० सागरमल जी ने भी प्रवचनपरीक्षा के कर्ता उपाध्याय धर्मसागर जी के कथन को समीचीन माना है। वे लिखते हैं
"प्रवचनपरीक्षा में उपाध्याय धर्मसागर जी का यह कथन कि गिरनार पर्वत के स्वामित्व को लेकर जो विवाद उठा उसके पूर्व पद्मासन की जिनप्रतिमाओं में न तो नग्नत्व का प्रदर्शन होता था और न वस्त्रचिह्न बनाया जाता था, समीचीन लगता है।" ('श्रमण'/ जुलाई-दिसम्बर २००५ / पृ.६५)।
किन्तु डॉक्टर सा० ने उपाध्याय धर्मसागर जी के कथन को यथावत् प्रस्तुत नहीं किया। उन्होंने जिनप्रतिमाओं के साथ 'पद्मासन' विशेषण जोड़ दिया है, जब कि 'प्रवचनपरीक्षा' में पद्मासन और खड्गासन का भेद नहीं किया गया है। उसमें जिनप्रतिमामात्र के अनग्न और अंचलिकारहित बनाये जाने की बात कही गयी है। अतः उपाध्याय धर्मसागर जी के कथनानुसार खड्गासन (कायोत्सर्ग-मुद्रामय) जिनप्रतिमाएँ भी अनग्न और अंचलिकारहित बनायी जाती थीं। (देखिये, पादटिप्पणी ३, ४ एवं ५)। वस्तुतः पद्मासनप्रतिमा में तो नग्नत्व पद्मासन के ही कारण अदृश्य रहता है। नग्नत्व को अदृश्य बनाने की आवश्यकता तो खड्गासन में ही होती है। यदि डॉक्टर सा० ने उपाध्याय धर्मसागर जी के कथन को श्वेताम्बर-आगम-सम्मत होने के कारण समीचीन माना है, तो उनका यह कथन भी समीचीन मानना होगा कि गिरनार-विवाद के पूर्व खड्गासनजिनप्रतिमाओं में भी नग्नत्व का प्रदर्शन नहीं होता था, क्योंकि यह कथन भी श्वेताम्बरआगमसम्मत है।
इस प्रकार उपाध्याय धर्मसागर जी के कथन से डॉक्टर सा० के इस प्रश्न का समाधान हो जाता है कि छठी शती ई० के पूर्व श्वेताम्बरपरम्परा में कैसी जिनप्रतिमाओं की पूजा होती थी?
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