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३७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ है और इसका उद्देश्य दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकत्व स्थापित करना बतलाया है। वे भारतीय इतिहास : एक दृष्टि नामक ग्रन्थ में लिखते हैं
"नन्द और मौर्यकाल में मथुरा में जैनधर्म की क्या स्थिति रही, निश्चय से नहीं कहा जा सकता। ४थी शती ई० पू० में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण उत्तरापथ के जैनसंघ का एक बड़ा भाग अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की अध्यक्षता में दक्षिण देश को विहार कर गया था। दुर्भिक्ष की समाप्ति पर भी उनमें से अधिकांश साधु वहीं रह गये और उनका संगठन कालान्तर में मूलसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मगध में ही जो साधु रह गये थे, उन्होंने स्थूलभद्र और उनके शिष्यों के नेतृत्व में अपना पृथक् संगठन कर लिया। दुर्भिक्ष के समय आपद्धर्म के रूप में इन मागधी साधुओं ने जो शिथिलाचार ग्रहण कर लिया था, वह शनैः शनैः रूढ़ होता गया और कालान्तर में दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदायभेद का कारण बना। मथुरा आदि मगध से दूरस्थ प्रदेश दुष्काल के प्रकोप से उतने त्रस्त नहीं हुए थे, अतः यहाँ के जैन साधु कर्णाटकी (दक्षिणी) और मागधी (उत्तरी) दोनों ही धाराओं से अपने आचार-विचार में विलक्षण रहे।" (पृ.१०३)।
"मथुरा के जैनसंघ ने दिगम्बर-श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायों की पूर्वज उपर्युक्त दोनों धाराओं से पृथक् रहकर प्रसिद्ध गुरुओं अथवा स्थानों के नाम पर अपने गण, शाखा, कुल, गोष्ठ आदि स्थापित करके अपना स्वतन्त्र संगठन किया। शुंग-शककुषाणकाल (लगभग ई० पू० २०० से ई० सन् २०० पर्यन्त) में मथुरा के इस जैनसंघ ने अभूतपूर्व उन्नति की।" (पृ.१०३)।
"यही कारण है कि जैनसंघ की अपने आपको मौलिक कहनेवाली दिगम्बरों एवं श्वेताम्बरों की पूर्वोक्त दोनों धारायें, जब कि अपने बीच सम्प्रदायभेद की खाई को उत्तरोत्तर गहरी करती जा रही थीं, मथुरा के जैन गुरु स्वयं इन दोनों से पृथक् रहकर भी समन्वय का ही प्रयत्न करते थे। अतः दोनों ही परम्पराओं में मथुरा के अनेक गुरु समान रूप से समादृत हुए और मथुरा का तत्कालीन धर्म दोनों सम्प्रदायों के बीच की कड़ी सिद्ध हुआ। यहीं और इसी काल में कन्हश्रमण के नेतृत्व में उस अर्द्धफालक-सम्प्रदाय का अस्थायी उदय हुआ, जो एक छोटा सा खण्डवस्त्र ग्रहण करने का विधान करके दोनों दलों के बीच समझौता कराना चाहता था।" (पृ. १०४-१०५)।
डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन का यह मत भी घटित हो सकता है, किन्तु इसके पीछे कोई साहित्यिक आधार नहीं है। जब कि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय अर्धफालकसम्प्रदाय की उत्पत्ति हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोश' तथा रत्ननन्दीकृत 'भद्रबाहुचरित' से
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