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________________ अ०५/प्र०१ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३७७ ८ कुछ जिनप्रतिमाओं का सम्बन्ध अर्धफालक-सम्प्रदाय से मथुरा की कुषाणकालीन नग्न जिनप्रतिमाओं में से कुछ का सम्बन्ध जैनों के एक अर्धफालक-सम्प्रदाय से भी है, जो श्वेताम्बर नहीं था, अपितु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में द्वादशवर्षीय-दुर्भिक्षजनित परिस्थितियों के परिणामस्वरूप दिगम्बरसंघ से उद्भूत हुआ था, जिसके कुछ साधु पुनः दिगम्बर हो गये, कुछ साधु जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद उत्पन्न हए श्वेताम्बरसंघ में विलीन हो गये और कुछ अर्धफालक ही बने रहे । अर्धफालक का अर्थ है: आधा वस्त्र। आधे वस्त्र को बायीं कलाई पर लटकाकर या बीच से हाथ में पकड़ कर अपनी नग्नता को ढंकनेवाले जैन साधुओं को बृहत्कथाकोशकार हरिषेण ने अर्धफालक साधुओं की संज्ञा दी है। (देखिए, षष्ठ अध्याय)। मथुरा की सभी जिन प्रतिमाएँ पूर्णतः निर्वस्त्र हैं। किन्तु किसी-किसी जिनप्रतिमा के पादपीठ या आयागपट्ट पर ऐसे साधु की मूर्ति भी उत्कीर्ण है, जो नग्न है, किन्तु उसके बायें हाथ की कलाई पर अर्धफालक लटक रहा है, या बीच से हाथ में पकड़कर लटकाया गया है, जिससे किसी की जननेन्द्रिय आवृत है, किसी की नहीं। किन्तु नितम्बभाग तो सभी का खुला हुआ है। इससे सूचित होता है कि वे नग्न जिनप्रतिमाएँ ऐसे जैनसम्प्रदाय के साधुओं द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी थीं, जो न तो यह मानते थे कि तीर्थंकर देवदूष्य वस्त्र लेकर प्रव्रजित होते हैं, न यह स्वीकार करते थे कि उनकी नग्नता स्वप्रभामण्डल से आवृत रहती है, और न जो नग्नत्व को अश्लील, बीभत्स, निर्लज्जताजनक, लोकमर्यादा-विरुद्ध एवं स्त्रियों में कामविकारोत्पादक मानते थे, अपितु उसे वीतरागता एवं जितेन्द्रियता की अभिव्यक्ति मानते थे। यह एकमात्र दिगम्बरों की मान्यता है, किन्तु उत्कीर्ण साधुओं का वेश दिगम्बर नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि वे उन्हीं साधुओं में से थे, जो पहले दिगम्बर थे, किन्तु द्वादशवर्षीयदुर्भिक्षजन्य परिस्थितियों के फलस्वरूप अर्धफालक धारण करने लगे थे और न तो पुनः दिगम्बर हुए, न श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में शामिल हुए , अपितु स्वतंत्र बने रहे, तथापि उन्होंने तीर्थंकरों के दिगम्बरमान्य नग्न वेश को अमान्य नहीं किया। वे उस समय भी तीर्थंकरों की नग्न प्रतिमा का ही निर्माण कराते थे और उसकी पूजा करते थे। माननीय डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन ने भी मथुरा के पाषणशिल्प को अर्धफालक सम्प्रदाय से सम्बद्ध माना है। किन्तु उन्होंने उसकी उत्पत्ति द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के परिणामस्वरूप न मानकर ई० पू० द्वितीय शताब्दी में मथुरा के कण्हश्रमण द्वारा की गई मानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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