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________________ ३७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५ / प्र०१ हैं। अनेक वर्तमान श्वेताम्बर विद्वान् भी गर्भापहरणवाली मान्यता को अप्राकृतिक मानते हैं तथा उसे साम्प्रदायिक विद्वेष से प्रेरित एक उत्तरकालीन क्षेपक समझते हैं। "बूहलर (उपर्युक्त एपी. इंडि.), स्मिथ (दी जैन स्तूप, पृ.२५-२६) तथा कनिंघम (ए.एस.आई. रिपोर्ट भा. २०, पृ. ३६) ने इनमें से जिस नैगमेश-मूर्तांकन का विशेषरूप से उल्लेख किया है, वह देवराज इन्द्र की सभा में नैगमेश द्वारा अपने कर्म की सफलता की सचना देने का दृश्य भी हो सकता है, महिला शची (इन्द्राणी) हो सकती है, दृश्यांकित बालक के हाथ की पीछी (?) या वस्त्र (?) उसके चरम-शरीरी होने का प्रतीक है, जैसा कि देवकी के उक्त छहों पुत्रों के सम्बन्ध में भविष्यवाणी थी। इस शिलापट्ट के पृष्ठ भाग में जो उत्सव का दृश्य अंकित है वह भद्रिलपुर में अलका सेठानी के घर तेजस्वी पुत्रों के जन्मोत्सव का दृश्य है। "नैगमेश के मथुरा से प्राप्त चार-पाँच मूर्तांकनों में से एक में देव खड़ा है और उसके कन्धों पर तथा दोनों हाथ पकड़े हुए पाँच-छह बालक अंकित हैं। यह दृश्य भी देवकी द्वारा प्रसूत और अलका द्वारा लालित-पालित उक्त छह चरमशरीरी (उसी भव में निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा बननेवाले) तेजस्वी बालकों की रक्षा कर पाने से हर्षित हुए , उछलते-कूदते नैगमेश का प्रतीत होता है। "अभी हाल में, पूज्य मुनि श्री विद्यानन्द जी ने इस दृश्य को बालक महावीर द्वारा पराभूत किये जाने पर, उनकी परीक्षा करने के लिए आये संगम नामक देव का महावीर के साथी बालकों के साथ क्रीड़ारत होने के समय का अनुमान किया है। "मथुरा की उपर्युक्त नैगमेशी-मूर्तियों एवं मूर्तांकनों को देखकर, उनका निरीक्षणपरीक्षण करके तथा तत्सम्बन्धी अध्ययनों, साहित्योल्लेखों एवं अनुश्रुतियों का अध्ययन कर हमें तो यही लगता है कि उनका सम्बन्ध भगवान् महावीर के कथित गर्भापहरण की घटना के साथ तो नहीं है और इस बात की प्रायः शत-प्रतिशत संभावना है कि उनका सम्बन्ध स्वयं मथुरा में अत्याचारी कंस के बन्दीगृह में देवकी द्वारा प्रसूत शिशुओं की इन्द्र की आज्ञा से नैगमैश द्वारा अलका सेठानी की गोद में स्थानान्तरण करके रक्षा करने से है।" (शोधादर्श-४८)। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि मथुरा के कुषाणकालीन शिल्प का सम्बन्ध श्वेताम्बर-सम्प्रदाय से नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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