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________________ अ०५ / प्र० १ पुरातत्त्व में दिगम्बर- परम्परा के प्रमाण / ३७५ की सन्तान समझकर शिला पर पटक कर मार डालने से संतुष्ट हो जाता था । आचार्य गुणभद्र (लगभग ८५० ई०) कृत उत्तरपुराण ( पर्व ७० श्लोक ३८४ - ३९०, तथा पर्व ७१, श्लोक २९३-६८) में भी प्रायः यही कथा दोहराई गई है, किन्तु देव का उल्लेख 'नैगमर्ष' और 'नैगमर्षि' नाम से किया गया है। श्वेताम्बर नेमिनाथचरित्र, हरिभद्रसूरिकृत नेमिनाहचरिउ (पद्यांक २२७५ - २२८५) एवं आचार्य हेमचन्द्रकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुष - चरित में भी नैगमेश नामक इस देव का कृष्णजन्म के इस प्रसंग में प्रायः ऐसा ही वर्णन हुआ है। केवल नामादिक कहीं-कहीं कुछ भिन्न हैं। " मथुरा यदुवंशियों की प्रसिद्ध प्राचीन नगरी है, कृष्ण की जन्मभूमि एवं लीलाभूमि है, कृष्ण के ही सगे ताऊजात भाई एवं अत्यन्त स्नेहभाजन तीर्थङ्कर नेमिनाथ का भी यह प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता है (देखें, जिनप्रभसूरि - कृत 'विविधतीर्थकल्प') । मथुरा के उसी कंकाली टीला स्थल से प्रायः उसी प्राचीन काल (शक - कुषाण ) की कई प्रतिमाएँ तीर्थंकर नेमिनाथ की ऐसी प्राप्त हुई हैं, जिनमें तीर्थंकर के आजू-बाजू कृष्ण और बलराम की मूर्तियाँ अंकित हैं। इस प्रकार की मूर्तियाँ अन्यत्र सुनने में नहीं आयी हैं। अस्तु, मथुरा से प्राप्त उक्त नैगमेश मूर्तियों या मूर्तांकनों का सम्बन्ध देवकी और अलका के नवजात शिशुओं की अदला-बदली से ही है, इस विषय में हमें कोई सन्देह प्रतीत नहीं होता । "आधुनिक युग में बूहलर, फूहरर, स्मिथ आदि कतिपय प्रारम्भिक पुरातत्त्वविदों ने मथुरा की उक्त नैगमेश मूर्तियों का सम्बन्ध भ्रमवश भगवान् महावीर के जन्म के साथ जोड़ दिया, और उत्तरवर्ती प्रायः सभी तद्विषयक लेखकों ने आँख मींचकर उसी भ्रान्त धारणा का अनुसरण किया। इन मूर्तांकनों में एक भी अभिलेख अथवा अन्य संकेत ऐसा नहीं है, जो देवकी - पुत्रों के जन्म के प्रसंग के साथ उनका सम्बन्ध स्थापित करने में बाधक हो, या महावीरजन्म के साथ उन्हें जोड़ने में साधक हो । “श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य कल्पसूत्र में ऐसी कथा आती है कि महावीर का जीव देवलोक से चलकर देवनन्दा नाम की ब्राह्मणी के गर्भ में आया । इन्द्र को जब यह बात ज्ञात हुई, तो उसने सोचा यह तो अनुचित हुआ, तीर्थंकर को तो क्षत्रियाणी केही गर्भ से उत्पन्न होना चाहिये । अत एव इन्द्र की आज्ञा से हरिनैगमेशी नामक देव ने देवनन्दा के उदर से त्रिशला के उदर में गर्भस्थ महावीर का स्थानान्तरण कर दिया । दिगम्बरपरम्परा में तो गर्भापहरण- सम्बन्धी इस कथा का कहीं कोई लेशमात्र भी संकेत नहीं है। उसके तो सिद्धान्त, मान्यताएँ और अनुश्रुतियाँ, सभी से यह कल्पना बाधित है। स्वयं श्वेताम्बर - परम्परा के भी कई प्राचीनतर आगम एवं आगमिक ग्रन्थों में ऐसे कथन प्राप्त होते हैं, जो या तो इस मान्यता के साधक नहीं हैं अथवा विरोधी Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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