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अ०५/प्र०१
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३७९ समर्थित है। अतः अर्धफालक-सम्प्रदाय की उत्पत्ति का यह काल और कारण अधिक युक्तिसंगत है।
श्री चिमनलाल जैचन्द शाह ने मथुरा के शिल्प में तीर्थंकरों के नग्नत्व और साधुओं के सचेलत्व आदि के अंकन को दिगम्बर-श्वेताम्बर-विभाजन के पूर्ववर्ती अविभक्त निर्ग्रन्थसंघ के स्वरूप का प्रतिबिम्ब बतलाया है। वे लिखते हैं-"मथुरा की शिल्पकला का विचार करते हुए पता लगता है कि महावीर के गर्भापहार के शिल्प में महावीर को नग्न दिखलाया गया है। इस प्रकार मथुरा के एक ही शिल्प में दिगम्बरों की नग्नता की मान्यता और श्वेताम्बरों के गर्भापहार की मान्यता दोनों ही आ जाती हैं। इससे यह देखा जा सकता है कि ई० सन् की पहली सदी तक तो दोनों सम्प्रदायों का पन्थभेद निश्चय ही उत्पन्न नहीं हुआ था।" (उत्तरभारत में जैनधर्म / पृ.६६)।
___ माननीय शाह की यह मीमांसा समीचीन नहीं है। जम्बूस्वामी के पश्चात् दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की आचार्यपरम्पराओं में आयी हुई भिन्नता से सिद्ध है कि दिगम्बरश्वेताम्बर-पन्थभेद अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी (वीर नि० सं० ६२, ई० पू० ४६५) के निर्वाण के पश्चात् ही हो गया था। इसलिए मथुरा का प्रथम शती ई० का शिल्पांकन दिगम्बर-श्वेताम्बर-पन्थभेद के पूर्व का नहीं हो सकता। वह ई० पू० चतुर्थ शती में हुए दिगम्बर-अर्धफालक-पन्थभेद के बाद का ही है, जैसा कि ऊपर प्रतिपादित किया गया है।
"जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय" ग्रन्थ के अन्त में मथुरा के प्राचीनपाषाणशिल्प के चित्र दिये हुए हैं। उनमें चित्रसंख्या १ में विद्याचारी मुनि का अंकन है, जो नग्न होते हुए भी बायीं कलाई पर वस्त्र लटकाये हुए है, तथापि उसका पुरुषचिह्न दिखाई दे रहा है। चित्र संख्या ७ में एक स्तूप के दोनों ओर दो-दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं और उनके नीचे शिलापट्ट पर एक नग्न मुनि की मूर्ति उत्कीर्ण है, जो बायें हाथ में एक वस्त्र पकड़कर सामने लटकाये हुए है, जिससे उसकी पुरुषेन्द्रिय आच्छादित है। दाहिने हाथ में कोई झोली सी (संभवतः भिक्षापात्र) पकड़कर कन्धे पर टाँगे हुए है, जिसे कुछ पुरातत्त्वविदों ने सम्मार्जनी या प्रतिलेखन कहा है। उसके दायीं ओर एक स्त्री तथा बायीं ओर तीन स्त्रियों की आकृति खुदी हुई है। साधु के नीचे 'कण्ह' (कृष्ण) शब्द उत्कीर्ण है।
सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इसे अर्द्धफालक-सम्प्रदाय के साधु का अंकन माना है। हरिषेण ने बृहत्कथाकोश में कहा है कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय उत्पन्न हुए द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय जो साधु दक्षिणभारत न जाकर ८. देखिये, षष्ठ अध्याय : 'दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद का इतिहास।'
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