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अ०५ / प्र० १
पुरातत्त्व में दिगम्बर - परम्परा के प्रमाण / ३७३
थीं, अत एव उन पर उत्कर्ण गण, शाखा आदि के नाम भी अर्धफालकसम्प्रदाय से ही सम्बद्ध हैं। ७
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गर्भपरिवर्तन की घटना का उत्कीर्णन
बूहलर (Buhler), फूहरर ( Fuhrer ), स्मिथ ( Smith), आदि पाश्चात्य पुरातत्त्वविदों की व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर विद्वानों का कथन है कि मथुरा के कुषाणकालीन शिल्प में भगवान् महावीर के गर्भ-परिवर्तन की घटना का उत्कीर्णन है, अतः उसका सम्बन्ध श्वेताम्बर सम्प्रदाय से है । (जै. धं. या.स./ पृ. १५) । किन्तु पाश्चात्य पुरातत्त्वविदों की व्याख्या समीचीन नहीं है । उक्त शिल्प में श्रीकृष्ण की माता देवकी एवं श्रेष्ठिनी अलका के पुत्रों की अदला-बदली का चित्रण है। इस तथ्य का उद्घाटन सुप्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन ने अपने एक पुराने शोध - आलेख में किया है, जो 'जैनसन्देश' के शोधाङ्क ३३ में प्रकाशित हुआ था और कुछ समय पूर्व उसका पुनः प्रकाशन 'शोधादर्श - ४८' (नवम्बर २००२ ई०) में हुआ है। उसे ज्यों का त्यों नीचे उद्धृत कर रहा हूँ ।
डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन का लेख
मथुरा की नैगमेश - मूर्तियाँ और कृष्णजन्म
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'जैन पुराणशास्त्रों में हिरण, मेंढे अथवा अज ( बकरा ) जैसे मुखवाले एक देवता का उल्लेख नैगमर्षि, नैगमेश, नैगमेय, नैगमेशिन हरिणिगमिसि, हरिनैगमेसि, हारि इत्यादि नामों से विभिन्न ग्रन्थों में हुआ है। मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त शुंग-शक - कुषाणकालीन प्राचीन जैन अवशेषों में भी इस देवता के कई मूर्त्ताङ्कन मिले हैं, जिनमें से एक पर भगवनेमेसो ( भगवान् नैगमेश) नाम भी अंकित है ( देखिये, एपीग्रेफिका इण्डिका / भाग २/ पृ. ३१४/ चित्रफलक २ ) । इस देवता को देवराज इन्द्र का अनुचर, एक स्थान में इन्द्र की पैदल सेना का कप्तान बताया जाता है और शिशुओं के जन्म, पोषण . और संरक्षण से उसका विशेष संबंध है, ऐसा विश्वास किया जाता है । ब्राह्मण (हिन्दू) परम्परा में भी नवजात शिशुओं की हितकामना के लिए इस देवता की पूजा, मानता की जाती है। कहीं-कहीं उसके दो रूपों - एक शुभ एवं कल्याणकर और दूसरा अशुभ एवं अनिष्टकर का भी संकेत मिलता है ।
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" जैनपरम्परा में दिगम्बर आम्नाय के हरिवंशपुराण एवं महापुराणान्तर्गत उत्तरपुराण में तथा श्वेताम्बर - आम्नाय के नेमिनाथचरित्र और त्रिषष्टिशलाका - पुरुष - चरित ७. देखिये, अगला शीर्षक ८ ।
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