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३७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ "मथुरा के कंकाली टीले से निकली हुई उक्त प्राचीन प्रतिमाओं के विषय में श्वेताम्बरी सज्जनों का कहना है कि डॉक्टर फूहरर के कथनानुसार ये समस्त प्रतिमाएँ श्वेताम्बरीय हैं, अतः हमारा श्वेताम्बर-सम्प्रदाय दिगम्बर-सम्प्रदाय से प्राचीन है। ऐसा ही श्वेताम्बर मुनि आत्माराम जी ने अपने तत्त्वनिर्णयप्रासाद ग्रन्थ में लिखा भी है। किन्तु श्वेताम्बरी सज्जनों की ऐसी धारणा बहुत भूलभरी हुई है। क्योंकि प्रथम तो इन प्रतिमाओं में से एक दो के सिवाय प्रायः सब ही नग्न हैं। उनके शरीर पर वस्त्र का चिह्न रंचमात्र भी नहीं है। इस कारण दिगम्बरीय मूर्ति-विधान के अनुसार वे दिगम्बरी ही हैं। यदि वे श्वेताम्बरी होती, तो उन पर कम से कम चोलपट्ट (कंदोरालँगोट) का चिह्न तो अवश्य होता। किन्तु उन पर वह बिलकुल भी नहीं है। इस कारण नियमानुसार वे प्रतिमाएँ दिगम्बरी ही हैं।
"यदि प्रतिमाओं पर के लेख में 'कोट्टिकगण' शब्द लिखा हुआ होने के कारण उन प्रतिमाओं को श्वेताम्बरीय कहने का साहस किया जावे, तो भी गलत है, क्योंकि प्रतिमाओं के निर्माण के समय में कोट्टिकगण श्वेताम्बरीय होता तो प्रतिमाओं की आकृति भी अन्य श्वेताम्बरी मूर्तियों के अनुसार होती। श्वेताम्बर-बन्धुओं को या तो अपने शास्त्रों में यह दिखलाना चाहिए कि अरहन्त-प्रतिमा का आकार नग्न रूप में होता है, वस्त्र का लेशमात्र भी उसके ऊपर नहीं होता, तो तदनुसार वस्त्र, मुकुट, कुण्डल आदि चिह्नोंवाली जो मूर्तियाँ आज श्वेताम्बरों के यहाँ प्रचलित हैं, वे श्वेताम्बरीय नहीं ठहरती हैं। अथवा वस्त्रसहित मूर्तियों का निर्माण ही श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के शास्त्रानुसार होता है, ऐसा यदि श्वेताम्बर कहें, तो इन मथुरा से निकली हुई नग्न मूर्तियों को श्वेताम्बरीय मूर्ति मानने की भूल हृदय से निकाल देनी चाहिए। नग्न मूर्ति और वह श्वेताम्बरीय हो, ऐसा परस्परविरुद्ध कथन हास्यजनक भी है।" (श्वेताम्बरमत-समीक्षा/ पृ. १७८)।
शास्त्री जी का कथन युक्तियुक्त है। जब श्वेताम्बर-आगमों में दर्शाये गये जिनरूप के अनुसार श्वेताम्बरपरम्परा में नग्न जिनप्रतिमा का निर्माण ही नहीं हो सकता, क्योंकि वह जिनप्रतिमा नहीं कहला सकती, तब मथुरा के कंकाली टीले में उपलब्ध नग्न जिनप्रतिमाएँ श्वेताम्बरप्रतिमाएँ नहीं हो सकतीं। और इस कारण उन प्रतिमाओं के पादपीठ पर उत्कीर्ण गण, शाखा आदि के नाम भी श्वेताम्बरपरम्परा से सम्बद्ध नहीं हो सकते, भले ही वैसे ही नाम कल्पसूत्र की स्थविरावली में मिलते हों। उक्त प्रतिमाओं के अधोभाग में मूर्तित साधुओं का वेश श्वेताम्बरसाधुओं का नहीं, अपितु अर्धफालकसाधुओं का है, अतः सिद्ध होता है कि वे अर्धफालकसम्प्रदाय के द्वारा प्रतिष्ठापित की गयी
६. त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः / पृ.६१८-६२३ ।
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