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अ०५ / प्र० १
पुरातत्त्व में दिगम्बर - परम्परा के प्रमाण / ३७१
मुनि जी का मत प्रवचनपरीक्षाकार के मत से मिलता है। मुनि श्री आत्माराम जी का भी यही मत है । इसलिए इसमें सन्देह नहीं रह जाता कि कोई भी नग्न जिनप्रतिमा, चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन, श्वेताम्बर - परम्परा की नहीं है । इसलिए मुनि श्री जिनविजय जी एवं पं० नाथूराम जी प्रेमी का यह कथन समीचीन नहीं है कि 'प्राचीन काल में दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों की जिन - प्रतिमाएँ नग्न होती थीं ।'
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मथुरा की प्राचीन जिन प्रतिमाएँ नग्न ही हैं
किन्तु मथुरा के कंकाली टीले सें प्राप्त कुषाणकालीन जिनप्रतिमाओं की नग्नता प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है, अतः उनके नग्न होने से इनकार नहीं किया जा सकता । इसीलिए मुनि श्री जिनविजय जी ने कहा है कि वे नग्न हैं । ' उत्तरभारत में जैनधर्म' ग्रन्थ के लेखक श्री चिमनलाल जैचंद शाह ने भी लिखा है- “ इसी प्रकार की जैनतीर्थंकरों की मूर्तियाँ मथुरा के अवशेषों में भी प्राप्त हैं। वे मूर्तियाँ एक वर्ग - रूप से दिगम्बर शैली की ही हैं" (पृष्ठ २१० ) । सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री भी लिखते हैं- " जैनमूर्तिकला से भी नग्नता का ही समर्थन होता है। एक भी प्राचीन जैनमूर्ति ऐसी नहीं मिली है, जो सवस्त्र हो अथवा जिसके गुह्यप्रदेश में वस्त्र का चिह्न अंकित हो । मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त सभी मूर्तियाँ नग्न हैं । सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री वीसेण्ट स्मिथ ने 'दी जैन स्तूप एण्ड अदर एन्टीकुटीस् ऑफ मथुरा' नामक पुस्तक प्रकाशित की थी। उसमें बहुत सी जिन - प्रतिमाओं के चित्र भी दिये हैं, जिनमें कुछ प्रतिमाएँ बैठी हुई हैं और कुछ खड़ी हुई हैं। बैठी हुई मूर्तियों पर वस्त्र का कोई चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होता । परन्तु खड़ी मूर्तियाँ स्पष्ट रूप से नग्न हैं, और उनमें अंकित लेखों में जो गण, गच्छ आदि दिये हुए हैं, वे श्वेताम्बरग्रन्थ कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार दिये हुए हैं। " (जै. सा. इ./पू. .पी. / पृ. ४८३) ।
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वे श्वेताम्बरपरम्परा की प्रतिमाएँ नहीं हैं
यद्यपि मथुरा की कुषाणकालीन जिनप्रतिमाओं में से कुछ पर वैसे ही गणगच्छ उत्कीर्ण हैं, जैसे श्वेताम्बरग्रन्थ कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित हैं, तथापि वे प्रतिमाएँ श्वेताम्बर - परम्परा की नहीं हैं। यह इसी से सिद्ध है कि वे नग्न हैं और नग्न जिनप्रतिमाओं को श्वेताम्बरमत जिनबिम्ब नहीं मानता, अत एव वे श्वेताम्बरों के लिए पूज्य नहीं । इसे युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हुए बहुश्रुत विद्वान् पं० अजितकुमार जी शास्त्री लिखते हैं
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