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________________ ३७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५/प्र०१ हों, वे उनका निर्माण और प्रतिष्ठापन कैसे करा सकते हैं? और वे उनके लिए पूज्य कैसे हो सकती हैं? सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी इस तथ्य से अवगत थे, इसलिए उन्होंने उन प्रतिमाओं को नग्न मानने से ही इनकार कर दिया। वे लिखते हैं "मथुरा के स्तूप में से निकली हुई जैन प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का कथन है कि वे दिगम्बर मूर्तियाँ हैं, यह कथन यथार्थ नहीं। क्योंकि आज से २००० वर्ष पहले मूर्तियाँ इस प्रकार से बनाई जाती थीं कि गद्दी पर बैठी हुई तो क्या, खड़ी मूर्तियाँ भी खुले रूप में नग्न नहीं दिखती थीं। उनके वामस्कन्ध से देवदूष्य वस्त्र का अंचल दक्षिण जानु तक इस खूबी से नीचे उतारा जाता था कि आगे तथा पीछे का गुह्य भाग उससे आवृत हो जाता था और वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लग सकता था। विक्रम की छठवीं तथा सातवीं शती की खड़ी जिनमूर्तियाँ इसी प्रकार से बनी हुई आज तक दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु उसके परवर्ती समय में ज्यों-ज्यों दिगम्बरसम्प्रदाय व्यवस्थित होता गया त्यों-त्यों उसने अपनी जिनमूर्तियों का अस्तित्व पृथक् दिखाने के लिए जिनमूर्तियों में भी प्रकटरूप से नग्नता दिखलाना प्रारम्भ कर दिया। गुप्तकाल से बीसवीं शती तक कि जितनी भी जिनमूर्तियाँ दिगम्बरसम्प्रदाय द्वारा बनवाई गई हैं, वे सभी नग्न हैं। मथुरा के स्तूप में से भी गुप्तकाल में बनी हुई इस प्रकार की नग्न मूर्तियों के कतिपय नमूने मिले हैं, परन्तु वे सभी विक्रम की आठवीं शती के बाद की हैं, कुषाणकाल की नहीं। मथुरा के स्तूप में से निकले हुए कई आयागपट्ट तथा प्राचीन जिनप्रतिमाओं के छायाचित्र हमने देखे हैं, उनमें नग्नता का कहीं भी आभास नहीं मिलता और यह भी सत्य है कि उन मूर्तियों के 'कच्छ' तथा 'अंचलि' आदि भी नहीं होते थे, क्योंकि श्वेताम्बर मूर्तियों की यह पद्धति विक्रम की ग्यारहवीं शती के बाद की है। "इसके अतिरिक्त मथुरा के स्तूप में से एक जैनश्रमण की मूर्ति मिली है, जिस पर 'कण्ह' नाम खुदा मिलता है। ये 'कण्ह' आचार्य, दिगम्बर-सम्प्रदाय-प्रवर्तक शिवभूति मुनि के गुरु कृष्ण हों, तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि वह मूर्ति अर्धनग्न होते हुए भी उसके कटिभाग में प्राचीन निर्ग्रन्थ श्रमणों द्वारा नग्नता ढाँकने के निमित्त रक्खे जाते 'अग्रावतार' नामक वस्त्रखण्ड की निशानी देखी जाती है। यह 'अग्रावतार' प्रसिद्ध स्थविर आर्यरक्षित के समय तक श्रमणों में व्यवहृत होता था। बाद में धीरे-धीरे छोटा कटिवस्त्र जिसे 'चुल्लपट्टक' (छोटा पट्टक) कहते थे, श्रमण कमर में बाँधने लगे, तब से प्राचीन 'अग्रावतार वस्त्रखण्ड' व्यवहार में से निकल गया।" (पट्टावलीपराग/ पृ.४४-४५)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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