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३६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ पद्मनन्दी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणीः पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती। उज्जयन्तगिरौ तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत्
अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपद्मनन्दिने॥ ६३॥ इन पद्यों में कहा गया है कि भट्टारक पद्मनन्दी ने गिरनारपर्वत पर सरस्वती की पाषाण प्रतिमा से यह कहलवा दिया था कि दिगम्बरमत ही प्राचीन है। 'दि इण्डियन एण्टिक्वेरी' में प्रकाशित सरस्वतीगच्छ की 'डी' पट्टावली के अनुसार ये पद्मनन्दी वि० सं० १३७५ में भट्टारकपद पर आसीन हुए थे। (देखिए , अध्याय ८ । प्रकरण ३ / शीर्षक १), किन्तु संयुक्त ए-बी पट्टावली (क्र. ८४) में इन्हें वि० सं० १३८५ में पट्टारूढ़ बतलाया गया है। (देखिए , अध्याय ८ / प्रकरण २ / शीर्षक १)। इस प्रकार दिगम्बरमतानुसार उक्त प्रतिमाविवाद ईसा की १४ वीं शताब्दी में हुआ था।
पं० नाथूराम जी प्रेमी का कथन है कि "आचार्य कुन्दकुन्द का भी एक नाम पद्मनन्दी है, अत एव पीछे के लेखकों ने इस शास्त्रार्थ और विजय का मुकुट कुन्दकुन्द को भी पहना दिया है, परन्तु यह बड़ा भारी भ्रम है। ये पद्मनन्दी १४ वीं शताब्दी के एक भट्टारक हैं।" (जै. सा. इ./ प्र.सं./ पा.टि./ पृ.२४५)।
फिर भी यदि श्वेताम्बरपरम्परा में उपलब्ध प्राचीनतम सवस्त्र जिनप्रतिमा के निर्माणकाल के आधार पर यह मान लिया जाय कि उपर्युक्त प्रतिमाविवाद ईसा की छठी शताब्दी में हुआ था, तो यह मानना होगा कि प्रवचनपरीक्षाकार के अनुसार छठी शती ई० के पूर्व बनाई जाने वाली जिनप्रतिमाएँ वस्त्रधारण न करते हुए भी नग्न नहीं होती थीं, अर्थात् कायोत्सर्गमुद्रामय प्रतिमाओं में लिंगनितम्बादि गुह्यांगों की रचना नहीं की जाती थी और पद्मासनमुद्रामय जिनप्रतिमाओं में लिंग के स्वतः अदृश्य रहने से केवल नितम्ब-जंघादि का आकार नहीं बनाया जाता था, दोनों प्रकार की प्रतिमाओं में गुह्यांगोंवाला भाग सपाट रखा जाता था, क्योंकि यदि सपाट न रखकर लिंग-नितम्बादि का आकार बनया जाता और वस्त्राच्छादित न दिखलाया जाता, तो नग्नत्व का दृष्टिगोचर होना अनिवार्य था। इससे सूचित होता है कि स्त्रीतीर्थंकर मल्ली की प्रतिमा स्तनयोनि नितम्ब आदि स्त्रीचिह्नों से रहित होती थी और शेष तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ लिंगनितम्बादि पुरुषचिह्नों से रहित। प्रवचनपरीक्षाकार के कथनानुसार विवाद होने पर दिगम्बरों ने ही उनपर लिंग-नितम्बादि का आकार बनाना आरंभ किया था।
प्रवचनपरीक्षाकार के इस कथन के आधार पर पं० नाथूराम जी प्रेमी ने भी निष्कर्ष निकाला है कि "पूर्वोक्त-विवाद के पहले (दिगम्बर-श्वेताम्बर) दोनों (सम्प्रदायों) की प्रतिमाओं में भेद नहीं था और इस कारण दोनों एकत्र होकर अपनी उपासनावृत्ति को चरितार्थ करते थे।" (जै. सा. इ./ प्र. सं./ पृ.२४१)।
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