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________________ अ०५/प्र०१ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३६५ है, अतः हम भी श्वेताम्बर-जिनप्रतिमाओं से अपनी जिनप्रतिमाओं की भिन्नता प्रकट करने के लिए उनमें कोई चिन्ह बनायेंगे। ऐसा सोचकर ईर्ष्याभाव से उन्होंने अपने अधिकार में विद्यमान जिनप्रतिमाओं में नग्नत्व आरोपित कर दिया। चूँकि श्वेताम्बरमुनि स्वयं वस्त्र धारण करते थे, इसलिए उन्होंने जिनप्रतिमाओं में वस्त्र का चिह्न बनाया और दिगम्बरमुनि नग्न रहते थे, अतः उन्होंने प्रतिमाओं को नग्न बनाया।)२ "इस प्रकार महाराज सम्प्रति आदि के द्वारा बनवाई गयीं प्राचीन प्रतिमाओं में तो पल्लवाङ्कन (अञ्चलचिह्न) नहीं है, किन्तु गिरनारपर्वत पर दिगम्बरों के साथ हुए विवाद के बाद बनायी गयी आधुनिक प्रतिमाओं में पल्लवचिह्न विद्यमान है। तात्पर्य यह कि विवाद के पूर्व निर्मित जिनप्रतिमाओं में नग्नत्व भी नहीं था और अञ्चलचिह्न भी नहीं था, इस कारण आकार की दृष्टि से उनमें श्वेताम्बर-दिगम्बर का भेद नहीं था। दोनों सम्प्रदायों की जिनप्रतिमाओं का आकार एक जैसा था।"५ प्रवचनपरीक्षाकार ने यह नहीं बतलाया कि दिगम्बरश्वेताम्बरों में यह प्रतिमाविवाद वीरनिर्वाण के कितने वर्ष बाद हुआ। किन्तु श्वेताम्बर-परम्परा में सबसे प्राचीन सवस्त्रप्रतिमा जीवन्तस्वामी (भगवान् महावीर) की है, जो छठी शती ई० में निर्मित हुई थी। उसके बाद सन् ६८७ ई० में भगवान् ऋषभदेव की सवस्त्र प्रतिमा का निर्माण हुआ। (देखिये, इसी अध्याय का तृतीय प्रकरण)। इससे संकेत मिलता है कि प्रवचनपरीक्षाकार द्वारा वर्णित प्रतिमाविवाद ईसा की छठी शती में हुआ होगा। किन्तु दिगम्बरपरम्परा के अनुसार यह विवाद ईसा की चौदहवीं शताब्दी में हुआ था, जैसा कि प्रथम शुभचन्द्रकृत गुर्वावली (ती.म.आ.प./४/ पृ.३९९) के निम्न पद्यों से ज्ञात होता है ३. "निजानां स्वायत्तानां जिनप्रतिमानां नग्नत्वं दृश्यमानलिङ्गाद्यवयवत्वमकार्षीत् स 'विगतसंज्ञो' नग्नाकारकरणेन जिनेन्द्रविगोपनं भविष्यति नवेति विचारणाशून्यः। अयं भावः-अहोऽस्मनिश्रितप्रतिमाकारतो भिन्नाकारकरणाय यदि श्रीसङ्घन पल्लवचिह्नमकारि, करिष्यामस्तर्हि वयमपि श्वेताम्बर-प्रतिमातो भिन्नत्वकरणाय किञ्चिच्चिह्नमिति विचिन्त्य मत्सरभावेन जिनप्रतिमानां नग्नत्वं विहितम्। श्वेताम्बरेण स्वयं वस्त्रधारित्वात् वस्त्रं चिह्नं कृतं, दिगम्बरेण स्वयं नग्नत्वान्नग्नत्वमेवेति गाथार्थः।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति १/२/६८ / पृ.११६। ४. “विवादात् पूर्वकालभाविनीनां त्रिखण्डाधिपति-सम्प्रति-नृपप्रभृतिनिर्मापितानां जीर्णप्रतिमानां पल्लवाङ्कनम् अञ्चलचिह्नं नास्ति, पुनः साम्प्रतीन-प्रतिमानाम् आधुनिकजिनप्रतिमानां पल्लवचिह्नमिति। साम्प्रतीनत्वं कुत इत्याह 'विवायकालाउ' त्ति उज्जयन्तगिरिमाश्रित्य (दिगम्बरैः सह) विवादकालादिति।" वही /१/२/६९/प्र.११६ । ५. "विवादात् पूर्वकालं जिनप्रतिमानां नैव नग्नत्वं, नापि च पल्लवकः अञ्चलचित्र, तेन कारणेन आकारेण जिनप्रतिमानामुभयेषां श्वेताम्बरदिगम्बराणां भेदो भिन्नत्वं 'न सम्भूतो' नासीत् , सदृश आकार आसीदिति गाथार्थः।" वही/१/२/ ७० / पृ. ११६-११७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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