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३६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ की जा सकती थी। जिस प्रतिमा में गुह्यप्रदेश दृष्टिगोचर हो रहा हो, वह श्वेताम्बरमान्य तीर्थंकर प्रतिमा नहीं हो सकती थी। अतः प्राचीनकाल में श्वेताम्बरपरम्परा में तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ अप्रकट-गुह्य-प्रदेशवाली अर्थात् गुह्यांगरचनारहित ही बनती थीं। प्रवचनपरीक्षाकार ने इस तथ्य का उद्घाटन निम्नलिखित शब्दों में किया है
उग्जिंतगिरिविवाए सासणसुरिकहणमित्थ संजायं। . जो मण्णइ नारीणं मुत्तिं तस्सेव तित्थमिणं॥ ६५॥ तत्तो विसन्नचित्ता खमणा पासंडिआ विगयआसा। निअ - निअठाणं पत्ता पब्भट्ठा दाणमाणेहिं॥ ६६॥ मा पडिमाण विवाओ होहित्ति विचिंतिऊण सिरिसंघो। कासी पल्लवचिंधं नवीणपडिमाण पयमूले॥ ६७॥ तं सोऊणं रुट्ठो दुवो खमणोऽवि कासि नगिणतं। निअपडिमाणं जिणवरविगोवणं सोऽवि गयसन्नो॥ ६८॥ तेणं संपइ-पमुह-प्पडिमाणं पल्लवंकणं नत्थि। अत्थि पुण संपईणप्पडिमाण विवायकालाओ॥ ६९॥ पुट्विं जिणपडिमाणं नगिणतं नेव नविअ पल्लवओ। तेणं नागारेणं भेओ उभएसि संभूओ॥ ७०॥
प्रवचनपरीक्षा / १ / २ / पृ. ११४-११६
अनुवाद "एक बार गिरनारतीर्थ के स्वामित्व को लेकर श्वेताम्बरों और दिगम्बरों में विवाद हुआ। उसमें श्वेताम्बरों ने शासनदेवी के मुख से कहलवा दिया कि जो सम्प्रदाय नारीमुक्ति को मानता है, यह तीर्थ उसी का है। यह सुनकर दिगम्बर निराश होकर अपने-अपने घर चले गये। उसके बाद श्वेताम्बरसंघ ने यह सोचकर कि प्रतिमाओं के लिए आगे कोई विवाद न हो, नवीन प्रतिमाओं के पादमूल में पल्लवचिह्न (वस्त्रपट्टिका का आकार) बनाना शुरु कर दिया। यह जानकर दुष्ट खमण (दिगम्बर) क्रुद्ध हो गये और संघ का कुछ बिगाड़ सकने में असमर्थ होने के कारण वे भी अपनी नवीन जिनप्रतिमाओं में नग्नत्व की अर्थात् दृश्यमान लिंगादि-अवयवों की रचना कराने लगे
और यह नहीं सोचा कि प्रतिमाओं को नग्नाकार बनाने से उनमें जिनेन्द्र का स्वरूप अदृश्य हो जायेगा।
(अभिप्राय यह कि दिगम्बरों ने सोचा कि हमारी जिनप्रतिमाओं से भिन्नता दर्शाने के लिए श्वेताम्बरों ने अपनी जिनप्रतिमाओं में पल्लवचिह्न बनाने का निर्णय किया
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