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अ०५/प्र०१
पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३६३ रहने का भी अतिशय होता है। समवायांग (३४ वें समवाय) में तीर्थंकर के जो चौंतीस अतिशय वर्णित हैं, उनमें से १९ वें अतिशय में तीर्थंकर में अप्रियरूप का अभाव बतलाया गया है। यह अप्रियरूप जुगुप्सोत्पादक नग्नरूप ही है, जो तीर्थंकरों में अतिशय के प्रभाव से अदृश्य हो जाता है। श्वेताम्बरमत में यह मानना अनिवार्य है कि तीर्थंकरों की नग्नता अदृश्य रहती है, क्योंकि उसमें मल्ली को स्त्री मानते हुए उनका तीर्थंकर होना भी माना गया है। इससे बहुत बड़ी विसंगति सामने आयी। एक ओर दिगम्बरमत के समान श्वेताम्बरमत में भी आर्यिका के लिए नाग्न्यलिंग (अचेलत्व) का निषेध किया गया है-"नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए हुंतए" (बृहत्कल्पसूत्र / उद्देश ५/ सूत्र १६)। दूसरी ओर यह कहा गया है कि सभी तीर्थंकर वस्त्राभूषण त्याग कर अचेल हो जाते हैं और यद्यपि एक वस्त्र कन्धे पर डालकर प्रव्रजित होते हैं, तथापि उसके च्युत हो जाने पर अचेल ही रहते हैं। (देखिये, अध्याय ३/प्र.१/शी.२)। सभी तीर्थंकरों में मल्ली भी आ जाते हैं। इससे यह समस्या खड़ी हुई कि मल्ली को यदि स्त्री माना जाता है, तो स्त्रियों के लिए नग्नता का निषेध होने से, उनका तीर्थंकर होना अनपपन्न होता है और यदि तीर्थंकर माना जाता है. तो उनका स्त्री होना अनपपन्न होता है, क्योंकि तीर्थंकर नग्न होते हैं और स्त्रियाँ नग्न नहीं हो सकतीं। अतः मल्ली के स्त्रीत्व और तीर्थंकरत्व, दोनों की उपपत्ति के लिए भी यह मानना आवश्यक था कि तीर्थंकरों की नग्नता उनके अतिशयजन्य शुभप्रभामण्डल से अदृश्य रहती है। श्वेताम्बरसाहित्य में उत्कृष्ट जिनकल्पियों के भी नाग्न्य के अदृश्य रहने का उल्लेख है-"जिनकल्पिकानामेकावतरित्वप्रघोषमाश्रित्य तथा च तेषां वस्त्राभावे नाग्न्यदर्शनाभावमाश्रित्याक्षराणि तु शास्त्रे दृष्टानि न स्मरन्तीति॥ ४२॥" (सेनप्रश्न / उल्लास १/ अभि.रा.को./६/८७८)। इसके अतिरिक्त सभी तीर्थंकरों का वस्त्रसहित ही प्रव्रजित होना बतलाया गया है-"सव्वेऽपि एगदूषेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं" (आव.नियु. । गा.२२७)।
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प्राचीन श्वेताम्बर-जिनप्रतिमाएँ गुह्यांग-रचना-रहित अभिप्राय यह कि अपने शुभप्रभामंडल से गुह्यप्रदेश (लिंग एवं नितम्ब) के आच्छादित रहने के कारण ही तीर्थंकर नग्नताजन्य दोषों से मुक्त और लोकानुवृत्त्यादि गुणों से युक्त रहते हैं। अतः श्वेताम्बरों के लिए वे इसी रूप में पूज्य हो सकते हैं, लज्जा-संयम-ब्रह्मचर्यादि गुणों के भंजक, लोकनिन्दित, बीभत्स नग्नरूप में नहीं। इससे सिद्ध है कि पूजा के लिए उनकी प्रतिकृति (प्रतिमा) भी इसी रूप में अर्थात् गुह्यप्रदेश के प्रदर्शन से रहित तथा देवदूष्य वस्त्र से अंशतः आच्छादितरूप में ही निर्मित
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