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३६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०५/प्र०१ पर क्षुधादि से पीड़ित न होते हुए भी शीतादि की बाधा से तथा उसके निवारण हेतु अग्नि प्रज्वलित करने की इच्छा से दुर्ध्यान होता है तथा अग्निसेवन से असंयम होता है।
"नग्न मुनियों को देखकर लोग सोचते हैं-"अरे! ये मुण्डे, पापी हमारी बहूबेटियों को मुँह से नाम न लेने योग्य अंग (लिंग) दिखलाते हुए लज्जित नहीं होते। इन्हें हम घर में नहीं घुसने देंगे।" ऐसे दुर्वचनों से जैनधर्म का अपमान होता है तथा नग्न पुरुष को देखकर स्त्रियों में कामविकार की उत्पत्ति होती है, क्योंकि यह स्त्रीपुरुष का स्वभाव ही है। इस दोष का निवारण भी वस्त्रधारण करने से ही होता है।
"प्रश्न-तीर्थंकर और जिनकल्पिक साधु भी वस्त्ररहित होते हैं, उनमें ये गुण कैसे संभव हैं? अर्थात् उनमें नग्नताजन्य दोषों का अभाव कैसे सम्भव है?
"उत्तर-तीर्थंकरादि में भी लोकाचाररूप धर्म का सद्भाव होने से 'हम उनमें वस्त्र का सद्भाव मानते हैं। यह कैसे? सुनिए , तीर्थंकर भी गृहस्थावस्था में समुचित वस्त्राभूषणों से विभूषित होते हैं, किन्तु प्रव्रज्या के समय (वस्त्राभूषणों का परित्याग कर देने पर भी) इन्द्र द्वारा लाये गये देवदूष्य वस्त्र को बायें कन्धे पर इस अभिप्राय से डाल लेते हैं कि मुझे वस्त्रपात्रमय धर्म का उपदेश देना है। आगम में कहा भी गया है कि 'चौबीसों तीर्थंकर एक वस्त्र लेकर प्रव्रजित हुए थे' (आवश्यकनियुक्ति। गाथा २२७)। नग्न होने पर भी पुण्योत्कर्ष के उदय से उनमें बीभत्सता के अभाव
और सौन्दर्य के सद्भाव से वस्त्रधारी जैसा स्वरूप विद्यमान होता है। कहा भी गया है-"जो बिना अध्ययन के ही विद्वान् हैं, बिना धन के ही परमेश्वर हैं और बिना अलंकारों के ही मनोहर हैं, वे जिनेन्द्र आपकी रक्षा करें।" इसका कारण यह है कि तीर्थंकरों का गुह्यप्रदेश उनके शुभप्रभामंडल से वस्त्रवत् ही आच्छादित रहता है, जिससे वह चर्मचक्षुवालों को दिखाई नहीं देता। फलस्वरूप उनके रूप को देखकर स्त्रियों में कामविकार की उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार वस्त्रपरिधान के अभाव में भी तीर्थंकरों में लोकाचाररूप धर्म का अभाव नहीं होता, अतः वे वस्त्रधारिवत् ही होते हैं।"
इस कथन का समर्थन समवायांग (समवाय ३४) के इस वचन से भी होता है-"पछन्ने आहारनिहारे अदिस्से मंसचक्खुणा" अर्थात् तीर्थंकर का आहार और नीहार (मल-मूत्र-विसर्जन) प्रच्छन्न होता है, चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देता। नीहार के दिखाई न देने से गुह्यांग का दिखाई न देना स्वतः सिद्ध है, कहा भी गया है-"भगवतो नाग्न्यादर्शनवत् पुरीषाद्यदर्शनस्याप्युपपत्तेः" (अभि.रा.को.३/६५७)। अर्थात् भगवान् में जैसे नाग्न्य दिखाई न देने का अतिशय होता है, वैसे ही मलमूत्रादि-विसर्जन के अदृश्य
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