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________________ अ०५/प्र०१ पुरातत्त्व में दिगम्बर-परम्परा के प्रमाण / ३६१ यथोचितं वस्त्रालङ्कारभूषिता एव भवन्ति। प्रव्रज्याप्रतिपत्त्यवसरे तु देवेन्द्रोपनीतदेवदूष्यवस्त्रं सवस्त्रपात्रो धर्मो मया प्रज्ञापनीय इति वामस्कन्धोपरि धरन्ति, यदागमः"सव्वेऽपि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं" ति श्री आव. नियु. (२२७)। परिधानभावस्तु तेषां सत्यपि नाग्न्ये पुण्योत्कर्षोदयात् कुत्सनीयत्वाभावात् प्रत्युत सुभगत्वाच्च, उक्तं च अनध्ययनविद्वांसो निर्द्रव्यपरमेश्वराः। अनलकङ्कारसुभगाः पान्तु युष्माञ्जिनेश्वराः॥ इति किं च जिनेन्द्राणां गुह्यप्रदेशो वस्त्रेणेव शुभप्रभामण्डलेनाच्छादितो न चर्मचक्षुषां दृग्गोचरीभवति। यदुक्तम् अण्णेसिं मोहोदयहेउअभावो सुहाणुबंधाओ। गुत्तिंदिअया य गुणा अणन्नतुल्ला मुणेअव्वा॥ १११६॥ ___ इति श्रीधर्मसंग्रहणीसूत्रे। तद्वृत्तिर्यथा-अन्येषां च स्त्र्यादीनां तद्रूपदर्शनानन्तरं मोहोदयहेतुत्वाभावः गुप्तेन्द्रियतेति गुप्तलिङ्गता चकारोऽनुक्तसमुच्चये, तेनान्येऽपि निश्छिद्रपाणिपात्रादयो द्रष्टव्याः। तथाचोक्तं-"ते हि भगवन्तो निरुपमधृति-संहनना गूढेन्द्रियाः स्वप्रभामण्डलाच्छादितदेहाः ज्ञानातिशय-सम्पत्समन्विताः निश्छिद्रपाणिपात्राः जितपरिषहा" इत्यादि, एवंरूपादिगुणा अनन्यतुल्या ज्ञातव्या इति श्रीधर्मसंग्रहणीवृत्तौ। तस्माद्वस्त्रापरिधानादिनिमित्तं जुगुप्सनीयावाच्यावयवादिदर्शनं, तच्च तीर्थकृतां न सम्भवति। अतः 'कारणाभावात् कार्यस्याभाव' इति न्यायात् वस्त्रापरिधानेऽपि तीर्थकृतां न लोकानुवृत्त्यादिगुणविलोपः, लोकैरपि वस्त्रपरिधान मुख्यवृत्त्या असभ्यावयवगोपननिमित्तमेव क्रियते मामर्त्यलोकस्य लज्जया लज्जनीयावयवगोपनस्वभावाद्।" (प्रव.परी./ वृत्ति / १/२/३०-३१/ पृ. ९१-९३)। सारांश-अनुवाद "वस्त्रधारण करने से लोकाचाररूप धर्म का पालन होता है, और लज्जा अर्थात् संयम की रक्षा होती है। वस्त्र-धारण न करने पर मनुष्य गर्दभ आदि के समान निर्लज्ज हो जाता है। निर्लज्ज पुरुष चारित्र का पालन कैसे कर सकता है? वस्त्रधारी में लज्जा होती है, जिससे ब्रह्मचर्य पलता है। अन्यथा जैसे घोड़ी को देखने से घोड़े के लिंग में विकार उत्पन्न हो जाता है, वैसे ही स्त्री को देखने से मुनि के लिंगादि में विकार उत्पन्न हो जाने पर जिनशासन की निन्दा होने के साथ अब्रह्मसेवन आदि बहुत से दोष सर्वजन-विदित हो सकते हैं। तथा वस्त्रधारण करने से शीतोष्णकाल में शीतादि की पीड़ा न होने से धर्मध्यान और शुक्लध्यान निर्बाध सम्पन्न होते हैं। नग्न रहने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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