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________________ ३५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४ / प्र० २ पश्चात् उससे अलग होकर दिगम्बरमत स्थापित करने की बात कही गयी है, उसकी कपोलकल्पितता स्वतः उद्घाटित हो जाती है। ३. इसी प्रकार भगवान् महावीर ने ऐकान्तिक अचेलधर्म का उपदेश न देकर सचेलाचेलधर्म का उपदेश दिया था और उत्तरभारत में एकमात्र वही परम्परा विद्यमान थी तथा उसके ही विभाजन से श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय उत्पन्न हुए थे, दिगम्बरसम्प्रदाय की स्थापना तो विक्रम की छठी शती में दक्षिण भारत में आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा की गई थी, ये अवधारणाएँ भी अपने-आप मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं। महान् आश्चर्य तो यह है कि जिन आदरणीय श्वेताम्बराचार्यों एवं विद्वानों ने इन कल्पित मतों का आरोपण किया है, उन्होंने जैनेतर (वैदिक, संस्कृत एवं बौद्ध) साहित्य के उपर्युक्त उल्लेखों पर दृष्टिपात नहीं किया, जिनसे दिगम्बरजैन - परम्परा की अति प्राचीनता सिद्ध होती है। उन पर दृष्टिपात किये बिना ही अथवा उन्हें प्रच्छादित कर इन इतिहासविरुद्ध मतों की कल्पना कर डाली। मुनि श्री विजयानन्द सूरीश्वर 'आत्माराम' जी ने अवश्य 'महाभारत' का अनुशीलन कर 'नग्नक्षपणक' के उल्लेख का अन्वेषण किया, किन्तु दुर्भाग्य से उन्होंने अपने ही सम्प्रदाय के शास्त्रों में उपलब्ध प्रमाणों की अवहेलना कर उसे श्वेताम्बरपरम्परा का, जिनकल्पी मुनि घोषित कर दिया, जब कि सभी श्वेताम्बरीय एवं दिगम्बरीय शास्त्र तथा वैदिक, बौद्ध एवं संस्कृत ग्रन्थ एक स्वर से 'क्षपणक' शब्द का अर्थ 'दिगम्बर जैन मुनि' बतला रहे हैं । और मुनि श्री आत्माराम जी ने भी केवल 'महाभारत' का ही अनुशीलन किया, उपरिनिर्दिष्ट अन्य जैनेतर पुराण, संस्कृत नाटक, काव्य आदि तथा विशाल बौद्ध साहित्य के अध्ययन का कष्ट नहीं उठाया । मुनि श्री कल्याणविजय जी तथा अन्य आधुनिक श्वेताम्बर विद्वानों ने महाभारत के उक्त उल्लेख पर भी ध्यान नहीं दिया, विभिन्न पुराण, पंचतंत्र, काव्य-नाटक, अंगुत्तरनिकाय, मज्झिमनिकाय, दीर्घनिकाय आदि बीस से अधिक अन्य जैनेतर एवं संस्कृत ग्रन्थों के अनुशीलन की तो बात ही दूर । ऐसा लगता है कि उन्होंने जान-बूझकर 'क्षपणक', 'निर्ग्रन्थ', 'अहीक', 'अचेल' आदि 'दिगम्बरजैनमुनि' - विषयक उल्लेखों को अन्धकार में रखने की चेष्टा की है, क्योंकि इनसे दिगम्बरजैन - परम्परा वैदिकयुग से भी पूर्ववर्ती सिद्ध होती है, जब कि वे इसे विक्रम की छठी शती (पंचम शताब्दी ई०) में आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रवर्तित सिद्ध करना चाहते थे । जैनेतर भारतीय साहित्य में उपलब्ध ये उल्लेख दिगम्बरमत की प्राचीनता के ऐसे तटस्थ और स्पष्ट प्रमाण हैं, जिनमें पक्षपात या किसी प्रकार के कपट की शंका स्वप्न में भी नहीं की जा सकती। इन प्रमाणों से श्वेताम्बर मुनियों एवं पण्डितों द्वारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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