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________________ ३५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ० ४ / प्र० २ है ? यह एक ऐसी विक्रेय वस्तु से भरा है, जिसे पीकर मुनष्य लज्जा खो देता है और निर्ग्रन्थ के समान वस्त्र पहनने के कष्ट से मुक्त होकर जनाकीर्ण रास्तों पर लड़खड़ाते हुए चलता है— पीत्वोचितामपि जहाति ययात्मलज्जां निर्ग्रन्थवद्वसनसंयमखेदमुक्तः । धीरं चरेत्पथिषु पौरजनाकुलेषु सा पण्यतामुपगता निहितात्र कुम्भे ॥ १५ ॥ इस प्रकार चतुर्थ शताब्दी ई० की आर्यशूरकृत जातकमाला ( बौद्ध ग्रन्थ) में भी निर्ग्रन्थ साधुओं को नग्न ही बतलाया गया है । १९ 'दिव्यावदान' के रचनाकाल में यापनीयों का उदय नहीं मुनि श्री कल्याणविजय जी ने लिखा है- " बौद्धों के प्राचीन शास्त्रों में नग्न जैन साधुओं का कहीं उल्लेख नहीं है और विसाखावत्थु धम्मपद - अट्ठकथा, दिव्यावदान आदि में जहाँ नग्न निर्ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, वे ग्रन्थ उस समय के हैं, जब कि यापनीयसंघ और आधुनिक सम्प्रदाय तक प्रकट हो चुके थे।" (श्र.भ.भ./ पृ.३३०) । मुनिजी का यह कथन प्रमाणविरुद्ध और अतर्कसंगत है। अट्ठकथाओं का रचनाकाल अवश्य चौथी - पाँचवीं शताब्दी ई० है, किन्तु 'दिव्यावदान' का रचनाकाल विद्वानों ने प्रथम शताब्दी ई० माना है, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है । पाँचवीं शती ई० के पूर्व किसी भी शिलालेख में और श्वेताम्बराचार्य श्री हरिभद्रसूरिकृत 'ललितविस्तरा' के पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में यापनीयसंघ का उल्लेख नहीं है । अतः यह किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता कि 'दिव्यावदान' की रचना के पूर्व अर्थात् ई० प्रथम शताब्दी के पहले यापनीयसम्प्रदाय का उदय हो चुका था। जिस बोटिकसम्प्रदाय को मुनि जी ने यापनीयसम्प्रदाय का पूर्वरूप माना है, उसका उदय भी वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद अर्थात् ई० सन् ८२ में बतलाया गया है, ईसवी प्रथम शताब्दी के पूर्व नहीं । और वह यापनीयसम्प्रदाय का पूर्वरूप नहीं था, अपितु दिगम्बर जैन-सम्प्रदाय ही था, यह द्वितीय अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति पाँचवीं शताब्दी ई० के प्रारंभ में सिद्ध होती है। अतः मुनि जी द्वारा जो यह अवधारणा पैदा करने की कोशिश की गई है कि 'दिव्यावदान' में जिन नग्न निर्ग्रन्थों का उल्लेख है, वह यापनीय-सम्प्रदाय के साधुओं का उल्लेख है, दिगम्बरजैन - सम्प्रदाय के साधुओं का नहीं, सर्वथा प्रमाणविरुद्ध है । यह अतर्कसंगत भी है, क्योंकि 'यापनीय' और 'निर्ग्रन्थ' भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के नाम हैं, यह पाँचवी शती ई० के राजा मृगेशवर्मा के हल्सीअभिलेख (क्र.९९ ) से स्पष्ट है। निर्ग्रन्थों और श्वेतपटों से अलग पहचान कराने के Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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