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________________ अ०४ / प्र०२ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३५१ साधु भी एक से तीन तक सूती-ऊनी प्रावरण (चादर) रखते थे तथा स्थविरकल्पी साधु तीन प्रावरणों के अतिरिक्त चोलपट्ट भी धारण करते हैं, तब साध्वियों के केवल एक-साड़ी-धारी होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने भी लिखा है कि "इनके (श्रमणियों के) लिए शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार के विशेष वस्त्र माने हैं, जिनसे कि इनकी मान-मर्यादा और शीलसम्पत्ति की रक्षा हो।" (मानव-भोज्य-मीमांसा/पृ.४९२) । अतः एकशाटीधारी भद्राकुण्डलकेसा ऐकान्तिकरूप से नग्न रहनेवाले निर्ग्रन्थों के ही सम्प्रदाय की थी, इसमें सन्देह के लिए स्थान नहीं है। इससे भी सिद्ध है कि थेरीगाथा-अट्ठकथा की कुण्डलकेसाकथा में केवल निर्ग्रन्थ मुनियों का उल्लेख है और अपदान की कुण्डलकेसाकथा में केवल श्वेतवस्त्रधारी मुनियों का। श्वेतवस्त्रधारी निर्ग्रन्थों का उल्लेख किसी भी कथा में नहीं है। आर्यशूरकृत जातकमाला में निर्ग्रन्थश्रमण का नग्नरूप आर्यशूर ने संस्कृत में 'जातकमाला' नामक ग्रन्थ की रचना की है। उनका कालनिर्धारण करते हुए श्री सूर्यनारायण चौधरी लिखते हैं-"अजन्ता की पत्थर की दीवारों पर जातकमाला के क्षान्तिवादी, मैत्रीबल, महाहंस, रुस, शिबि, महाकपि, महिष आदि जातकों के दृश्य चित्रित हुए हैं और दृश्यपरिचय के लिए उन जातकों से उपयुक्त श्लोक भी उद्धृत हुए हैं। श्लोकों के अभिलेख की लिपि छठी शती की है। इससे अनुमान होता है कि ५वीं शती में जातकमाला की ख्याति हो चुकी थी।"१०३ डॉ० बलदेव उपाध्याय ने भी यही लिखा है और वे आगे कहते हैं-"कहा जाता है कि आर्यशूर ने कर्मफल के ऊपर एक सूत्र लिखा था, जिसका चीनी अनुवाद ४३४ ई० में हुआ था। यदि दोनों आर्यशूर एक ही अभिन्न व्यक्ति हों, तो इनका समय पंचम शतक से पूर्व चतुर्थ शतक में अनुमानसिद्ध माना जा सकता है। अजन्ता की दीवारों में चित्रित होने से भी इनका समय पंचम शतक में निश्चयेन सिद्ध होता है।"१०४ आर्यशूर ने जातकमाला में एक कुम्भजातक का वर्णन किया है, जिसमें गौतमबुद्ध अपने एक पूर्वजन्म में देवों के इन्द्र होते हैं। देवेन्द्र होते हुए भी वे मनुष्यों का उपकार करना नहीं छोड़ते। एक बार जब वे मनुष्यलोक का निरीक्षण कर रहे थे, तब उन्होंने देखा कि सर्वमित्र नामक राजा को मद्यपान की लत लग गई है। वे उसे उस लत से मुक्त करना चाहते हैं। इसके लिए वे साधु के वेश में एक घड़ा लेकर राजा की सभा में आते हैं तथा पूछते हैं कि इस सुन्दर घड़े को कौन खरीदना चाहता १०३. जातकमाला / भूमिका / पृष्ठ ८/ मोतीलाल बनारसीदास / सन् २००१ । १०४. संस्कृत साहित्य का इतिहास / पृ. २१५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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