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________________ ३४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०४/प्र०२ (विधि) से प्रव्रज्या दी जाय?" उसने कहा-"आपकी प्रव्रज्या में जो उत्तम है, वही कीजिए। उन्होंने कहा-"ठीक है" और तालट्ठि से उसके केशों का लुञ्चन कर प्रव्रज्या दे दी। उसके बाद उसके केश बढ़ते हुए कुण्डलाकार (धुंघराले) हो गये। तब से उसका नाम कुण्डलकेसा पड़ गया।" कुछ समय बाद वह गौतम बुद्ध के पास जाकर प्रव्रज्या ले लेती है और अपनी पूर्व प्रव्रज्या की सदोषता का वर्णन करती हुई कहती है लूनकेसी पङ्कधरी एकसाटी पुरे चरि। अवज्जे वजमतिनी वजे चावज्जदस्सिनी॥ १०७॥ थेरीगाथा। अनुवाद-"मैं पूर्व में केशों का लुंचन कर, मैल धारण कर और एक साड़ी पहनकर निर्दोष को सदोष और सदोष को निर्दोष मानती हुई विचरण करती रही।" इस गाथा की व्याख्या थेरीगाथा-अट्ठकथा के कर्ता ने इस प्रकार की है"तत्थ लूनकेसीति लूना लुञ्चिता केसा मय्हन्ति लूनकेसी, निगण्ठेसु पब्बजाय तालट्ठिना लुञ्चितकेसा, तं सन्धाय वदति। पङ्कधरीति दन्तकट्ठस्स अखादनेन (दातौन को न चबाने से) दन्तेसु मल पङ्कधारणतो पङ्कधरी। एकसाटीति निगण्ठचारित्तवसेन एकसाटिका। पुरे चरिन्ति (चरिं इति) पुब्बे निगण्ठी हुत्वा एवं विचरि। अवजे वजमतिनीति न्हानुच्छादन-दन्तकट्ठ-खादनादिके अनवज्जे सावज्जसञी। वज्जे चावज्जदस्सिनीति मानमक्ख-पलास-विपल्लासादिके सावज्जे अनवज्जदिट्ठी।" (थेरीगाथा-अट्ठकथा । ९-भद्दाकुण्डलकेसा-थेरीगाथावण्णना / पृ.११९)। अनुवाद-"निर्ग्रन्थों की प्रव्रज्या में केशों का लुंचन होता है, उसी को ध्यान में रखकर भद्रा अपने को लूनकेशी कहती है। दातौन (दन्तकाष्ठ) न करने के कारण दाँतों में मैल लग जाने से पङ्कधरी हो गई थी। निर्ग्रन्थसम्प्रदाय में साध्वी (आर्यिका) के लिए एक ही साड़ी धारण करने का नियम है, इसलिए वह एकशाटी धारण करती थी। पूर्व में निर्ग्रन्थी (आर्यिका) होकर वह इस वेश में विचरण करती थी। स्नान, उच्छादन (शरीर को रगड़ना), दन्तधावन आदि निर्दोष कार्यों को वह दोषपूर्ण मानती थी और अभिमान, परनिन्दा (मक्ख) ईर्ष्या (पलास), वचन पर स्थिर न रहना (विपल्लास) आदि दोषपूर्ण कार्यों को निर्दोष समझती थी।" इनमें से प्रथम कथा में तो यह कहा गया है कि भद्रा कुण्डलकेशी ने परिवाजकों से प्रव्रज्या ग्रहण की थी, निर्ग्रन्थों का तो कहीं नाम भी नहीं आया। दूसरी कथा में निर्ग्रन्थों से प्रव्रज्या ग्रहण करने का कथन है, किन्तु सम्पूर्ण कथा में निर्ग्रन्थों के साथ 'श्वेतवस्त्रधारी' विशेषण का कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसलिए मुनि श्री नगराज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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