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अ०४/प्र०२
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३४७ पर जब भद्रा को अपने पति के षड्यन्त्र का पता चलता है, तब वह उसे ही पर्वत से ढकेलकर मार डालती है और आभूषण वहीं छोड़कर भाग आती है। किन्तु फिर लोकापवाद के भय से घर नहीं जाती और परिव्राजकों के आश्रम में जाकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेती है। बाद में वह बौद्धधर्म में दीक्षित हो जाती है। वहाँ उसका नाम कुण्डलकेसी रख दिया जाता है। परिव्राजकों के आश्रम में जाकर भद्रा के प्रव्रज्या ग्रहण करने के वृत्तान्त का मूल पाठ नीचे दिया जा रहा है
"सापि चोरं पपाते खिपित्वा चिन्तेसि, "सचाहं गेहं गमिस्सामि, 'सामिको ते कुहिं' ति पुच्छिस्सन्ति। सचाहं एवं पुट्ठा-'मारितो मे' ति वक्खामि, 'दुब्बिनीते सहस्सं दत्वा तं आहरापेत्वा इदानि नं मारेसी' ति मं मुखसत्तीहि विज्झिस्सन्ति, 'आभरणत्थाय सो मं मारेतुकामो अहोसी' ति वुत्तेपि न सद्दहिस्सन्ति, अलं मे गेहेना' ति तत्थेवाभरणानि छड्डत्वा अरखं पविसित्वा अनुपुब्बेन विचरन्ती एकं परिब्बाजकानं अस्समं पत्वा वन्दित्वा-'मव्हं भन्ते, तुम्हाकं सन्तिके पब्बजं देथा' ति आह। अथ नं पब्बाजेसुं।" (धम्मपद-अट्ठकथा/भा.२/८/३/पृ.३२६)। __अनुवाद-"उसने भी चोर को प्रपात में गिराकर सोचा कि अब यदि मैं घर लौटती हूँ, तो लोग पूछेगे कि तुम्हारा स्वामी कहाँ है? यदि मैं कहूँगी कि उसे मैंने मार डाला, तो वे कहेंगे कि दुष्टे! हजार मुद्राएँ देकर तो उसके साथ घर बसाया था, आज उसे भी मार डाला? ऐसा कहकर वे मुझ पर कटाक्ष करेंगे। यदि मैं कहूँगी कि वह आभूषणों के लिए मुझे मार डालना चाहता था, तो वे मेरी बात पर विश्वास नहीं करेंगे। इसलिए मेरा घर न जाना ही उचित है। यह सोचकर उसने आभूषण वहीं छोड़ दिये और वन में प्रवेश कर विचरण करती हुई परिव्राजकों के एक आश्रम में पहुँची। वहाँ परिव्राजकों को प्रणाम कर वह बोली-"भन्ते! मुझे अपने धर्म में प्रव्रज्या दीजिए। उन्होंने उसे प्रव्रज्या दे दी।"
थेरीगाथा-अट्ठकथा में यह अंश इस प्रकार है-"ततो भद्दा चिन्तेसि, 'न सक्का मया इमिना नियामेन गेहं गन्तुं , इतोव गन्त्वा एकं पब्बज्जं पब्बजिस्सामी' ति निगण्ठारामं गन्त्वा निगण्ठे पब्बज्जं याचि। अथ नं ते आहेसु 'केन नियामेन पब्बज्जा होतू' ति? 'यं तुम्हाकं पब्बज्जाय उत्तम, तदेव करोथा' ति। ते 'साधू' ति तस्सा तालट्ठिना केसे लुञ्चित्वा पब्बाजेसुं। पुन केसा वड्डन्ता कुण्डलावट्टा हुत्वा वड्डेसुं। ततो पट्ठाय कुण्डलकेसाति नाम जाता।" (थेरीगाथा-अट्ठकथा / ९-भद्दाकुण्डलकेसा थेरीगाथा-वण्णना / पृ.११२)।
अनुवाद-"तब भद्रा ने सोचा कि मैं इस दशा में (पति की हत्या करने के बाद) घर नहीं जा सकती। यहाँ से जाकर प्रव्रज्या ग्रहण करूँगी। यह सोचकर निर्ग्रन्थों के आश्रम में गयी और उनसे प्रव्रज्या की याचना की। वे उससे बोले-"किस नियम
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