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________________ [अड़तालीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ की छायातले दि० २६ फरवरी २००१ को हुआ था। फिर परमपूज्य आचार्यश्री ने दो चातुर्मासों (सन् २००२ एवं २००३) में प्रतिभामण्डल की ब्रह्मचारिणी बहनों को सर्वार्थसिद्धि एवं स्नातकोत्तर स्तर के संस्कृत-अध्यापन का पुण्यास्पद एवं सुखद कार्य भी सौंप दिया। इन नवीन उत्तरदायित्वों ने ग्रन्थलेखन के लिए उपलब्ध काल का बँटवारा कर लिया, जिससे उसका (काल का) तन दुबला हो गया और उसकी गति द्रुत से विलम्बित हो गयी। इससे ग्रन्थ के पूर्ण होने में अधिक समय लग गया। इस ग्रन्थ में मैंने दिगम्बरजैन, श्वेताम्बरजैन, वैदिक (हिन्दू) एवं बौद्ध साहित्यों, संस्कृत साहित्य के गद्य-पद्य-नाट्य काव्यों, अभिलेखों (शिलालेखों-ताम्रपत्रलेखों) तथा पुरातत्त्व (प्राचीन जिनप्रतिमाओं) से प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बरजैन-परम्परा उतनी ही प्राचीन है जितनी सिन्धुसभ्यता, अर्थात् ईसा से लगभग २४०० वर्ष पुरानी, तथा कसायपाहुड, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र आदि जिन ग्रन्थों को यापनीय-परम्परा या श्वेताम्बर-परम्परा का सिद्ध करने की चेष्टा की गई है, वे सब दिगम्बर आचार्यों के द्वारा ही रचे गये हैं। जैनपरम्परा और यापनीयसंघ नामक इस ग्रन्थ में २५ अध्याय हैं, जिनमें कतिपय अध्याय बहुत बड़े हैं। साथ में ग्रन्थकथा, ग्रन्थसार, अन्तस्तत्त्व (विषयवर्णनक्रम), संकेताक्षर-विवरण, प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची तथा शब्दविशेष-सूची भी संलग्न हैं। अतएव विशाल होने के कारण इसे तीन खण्डों में प्रकाशित किया गया है। ग्रन्थ-अनुक्रम ___ यद्यपि षट्खण्डागम (ईसापूर्व प्रथम शती-पूर्वार्ध) की रचना कसायपाहुड (ईसापूर्व द्वितीय शती-उत्तरार्ध) के बाद हुई है, तथापि उसमें प्रसंगवश कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है, जिनकी जानकारी अन्य विवेच्य ग्रन्थों के विषय को समझने के लिए भी पाठकों को प्राथमिकरूप से आवश्यक है। इसलिए षट्खण्डागम का क्रम कसायपाहुड से पहले रखा गया है। इसी प्रकार भगवती-आराधना और उसकी विजयोदया-टीका के कर्ता अपराजितसूरि का परस्पर सम्बन्ध होने से अपराजितसूरि से सम्बन्धित अध्याय भगवती-आराधना के पश्चात् रखा गया है। पादटिप्पणपद्धति प्रत्येक अध्याय में पादटिप्पणियों की संख्या स्वतन्त्ररूप से अर्थात् १ से आरंभ कर अध्याय के अन्त तक क्रमशः दी गयी है। यदि कोई टिप्पणी बड़ी होने के कारण उसी पृष्ठ पर समाप्त नहीं हो सकी, तो उसका शेषांश अगले पृष्ठ पर रखा गया है। इसी प्रकार किसी पादटिप्पणी का सूचकांक पूर्व पृष्ठ की अन्तिम पंक्ति या उससे पहले की पंक्ति पर आया है, जिसके कारण पादटिप्पणी का उसी पृष्ठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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