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ग्रन्थकथा
[उनचास] पर रखा जाना संभव नहीं हुआ, वह पादटिप्पणी उत्तर पृष्ठ पर रखी गयी है। इसके अतिरिक्त यदि किसी पृष्ठ पर एक ही ग्रन्थ के एक ही पृष्ठ की एक से अधिक पादटिप्पणियाँ हैं, तो उन सब पर एक ही (समान) पादटिपप्णी-संख्या दी गयी है। सम्पूर्ण ग्रन्थ का दो-तीन बार कम्प्यूटर-मुद्रण हो जाने के बाद किसी-किसी अध्याय में क्वचित् नयी पादटिप्पणियाँ जोड़ने की आवश्यकता पड़ी है, वहाँ आगे की क्रमांकव्यवस्था को भंग न करते हुए पूर्वटिप्पणी-क्रमांक के ही उपभेद कर नये टिप्पणीक्रमांक बना दिये गये हैं, जैसे पूर्वटिप्पणी-क्रमांक यदि ९ है, तो नये टिप्पणी-क्रमांक ९.१, ९.२, ९.३ इत्यादि बनाये गये हैं। उपसंहार
दस वर्षों तक लगातार ग्रन्थ लिखते रहने और लगभग २६०० पृष्ठों का पाँचपाँच, छह-छह बार, कुछ अध्यायों का तो दस-दस बार लिपिसंशोधन करते रहने तथा बीच-बीच में कतिपय पुराने अंशों को हटाने और नये अंशों को जोड़ते रहने के व्यायाम से श्रम तो बहुत हुआ, लेकिन श्रान्ति नहीं हुई। जिनशासन के अवर्णवाद के प्रतीकार में डूबा त्रियोग मेरे लिए धर्मध्यान बन गया और उससे जो आनन्द की अनुभूति हुई, उसने मेरे स्वास्थ्य के लिए औषध का काम किया। इसके अतिरिक्त पाण्डुलिपि का वाचन सुनते समय परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं पूज्य मुनि श्री अभयसागर जी ने जिस परमसन्तोष की अभिव्यक्ति की, उसने रसायन बनकर मेरे तन-मन में अपूर्व बल और स्फूर्ति का संचार किया। इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखन मेरे लिए दैहिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से लाभप्रद सिद्ध हुआ है। यह सुनकर आश्चर्य होगा कि ग्रन्थलेखन की इस दस वर्ष की अवधि में शरीर के किसी भी अंग में एक क्षण के लिए भी पीड़ा की अनुभूति नहीं हुयी। ग्रन्थ अपने उद्देश्य में कहाँ तक सफल रहा है, इसका निर्णय जैन साहित्य और इतिहास के मर्मज्ञ मनीषियों की दृष्टि करेगी। जो दोष दृष्टि में लाये जायेंगे, उनका निराकरण आगामी संस्करण में करने का प्रयास करूंगा। ए/२, शाहपुरा
गुरुचरण-चञ्चरीक भोपाल-४६२०३९, म. प्र.
रतनचन्द्र जैन वीरशासन-जयन्ती श्रावणकृष्णा १, वि. सं. २०६६ दिनांक ०८.०७.२००९
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