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________________ अ०४ / प्र० २ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३४५ मुनियों का कथन माना जाय, तो उन्हें नग्नरूप में वर्णन करना श्वेताम्बर - मुनिधर्म विरुद्ध है, फलस्वरूप इस कथा में उनका कथन नहीं माना जा सकता । यतः सम्पूर्ण बौद्धसाहित्य में 'निर्ग्रन्थ' शब्द से दिगम्बरजैन मुनियों का ही वर्णन किया गया है, अतः इस अट्ठकथा में दिगम्बरजैन मुनियों का ही कथन है, यह निर्विवाद है। तथा अन्य किसी भी स्थान पर निर्ग्रन्थों को भिक्षापात्रधारी नहीं बतलाया गया है, इससे सिद्ध है कि बुद्धघोष ने " जो प्राणी लज्जा न करने योग्य कार्य में लज्जा करते हैं और लज्जा करने योग्य कार्य में लज्जा नहीं करते, वे दुर्गति को प्राप्त होते हैं", बुद्ध इस उपदेश को किसी प्रसंग से जोड़ने लिए निर्ग्रन्थों का प्रसंग कल्पित किया है। और "जो लज्जा करने योग्य कार्य में लज्जा नहीं करते" यह तो निर्ग्रन्थों पर स्वधर्मतः घटित हो जाता है, किन्तु " जो लज्जा का कारण नहीं है, उसमें लज्जा करते हैं" यह स्वधर्मतः घटित नहीं होता । अतः इसे घटित करने के लिए बुद्धघोष ने उनके साथ भिक्षापात्र ग्रहण करने का धर्म अपने मन से जोड़ दिया है । और विचित्र बात यह है कि जब वे निर्ग्रन्थों के मुख से स्वयं कहलवा रहे हैं कि भिक्षापात्र को हम लज्जा के कारण नहीं ढँकते, अपितु उसमें जीव न गिर जायँ, इसलिए ढँकते हैं, फिर भी यह मान लिया गया है कि वे भिक्षापात्र को लज्जा के ही कारण वस्त्र से ढँकते हैं। और भिक्षापात्र को ढँकने, न ढँकने में लज्जा, अलज्जा का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वह कोई अश्लील अशोभनीय वस्तु नहीं है। अतः वे निर्ग्रन्थ लज्जा के कारण भिक्षापात्र को वस्त्र से ढँकते हैं, यह कल्पना ही, असंगत है। यह भी एक विचित्र बात है कि अट्ठकथा - लेखक पहले यह भ्रम पैदा करते हैं कि निर्ग्रन्थों ने अपने गोपनीय अंग को वस्त्र से आच्छादित कर रखा है, बाद में यह स्पष्ट करते हैं कि गोपनीय अंग नहीं, अपितु भिक्षापात्र वस्त्र से ढँका गया है। इसके अतिरिक्त ये निर्ग्रन्थ सर्वथा नग्न थे, फिर भी यह तुलना की गई है कि सर्वथा नग्न रहनेवाले साधुओं से गोपनीय अंग को प्रच्छादित करनेवाले ये निर्ग्रन्थ अच्छे हैं, सहीक (लज्जावान्) मालूम होते हैं। ये विसंगतियाँ एवं मिथ्या कथन सिद्ध करते हैं कि अट्ठकथा-लेखक ने अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए निर्ग्रन्थों के साथ उन आचरणों को भी जोड़ दिया है, जो वास्तविकता के विरुद्ध हैं। १७ बौद्धसाहित्य में वस्त्रधारी निर्ग्रन्थों का उल्लेख नहीं पालि-त्रिपिटक में तो 'निर्ग्रन्थ' शब्द से दिगम्बरजैन मुनि का ही चित्रण किया गया है, बौद्ध-अट्ठकथाओं में भी ऐसा ही उपलब्ध होता है। किन्तु श्वेताम्बरमुनि श्री नगराज जी ने धम्मपद - अट्ठकथा की 'निगंठवत्थु' एवं 'कुण्डलकेसीथेरीवत्थु' में तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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