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३४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०२ "जो प्राणी लज्जा न करने योग्य कार्य में लज्जा करते हैं और लज्जा करने योग्य कार्य में लज्जा नहीं करते, वे मिथ्या दृष्टि का अवलम्बन करने से दुर्गति को प्राप्त होते हैं।" (गाथा ३१६)।
"जो प्राणी भय न करने योग्य कार्य में भय करते हैं और भय करने योग्य कार्य में भय नहीं करते, वे मिथ्या दृष्टि का आश्रय करने से दुर्गति को प्राप्त होते हैं।" (गाथा ३१७)।
"अलज्जिताये इस गाथा का अभिप्राय इस प्रकार है-भिक्षापात्र लज्जा का कारण नहीं है, किन्तु वे निर्ग्रन्थ उसे प्रच्छादित करके विचारण करते हैं अर्थात् भिक्षापात्र का दूसरों को दिखना उनके लिए लज्जा कारण होता है। किन्तु अनावृत पुरुषचिह्न (लिंग) लज्जा का कारण है, फिर भी वे निर्ग्रन्थ उसे बिना ढंके ही विचरण करते हैं। यह लज्जा की बात है, किन्तु वे उससे लज्जित नहीं होते। इस प्रकार जो कार्य लज्जा के योग्य नहीं है, उससे वे लज्जित होते हैं। और जो लज्जा के योग्य है उससे लज्जित नहीं होते। यह अन्यथाग्रहणभाव मिथ्या दृष्टि है। इस मिथ्या दृष्टि को ग्रहण कर विचरण करते हुए वे प्राणी नरकादि दुर्गति को प्राप्त होते हैं।"
__ "अभये इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है-भिक्षापात्र के निमित्त से राग, द्वेष, मोह, मान, क्लेश, दुश्चरित्र आदि के भय उत्पन्न नहीं होते, इसलिए भिक्षापात्र भय का कारण नहीं है, तथापि भय का कारण समझकर उसे वे प्रच्छादित करते हैं। इस प्रकार अभय में भी वे भय देखते हैं। इसके विपरीत पुरुषेन्द्रिय (हिरिकोपीनङ्गह्रीकौपीनाङ्ग = लज्जाजनक गुप्ताङ्ग) के निमित्त से रागादि की उत्पत्ति होती है, अतः वह भय का कारण है। फिर भी वे उसे ढंकते नहीं है। इस तरह वे भय में अभय देखते हैं। इस मिथ्या दृष्टि के आश्रय से प्राणी दुर्गति में जाते हैं।"
इस अट्ठकथा में निर्ग्रन्थों (दिगम्बरजैन मुनियों) को भिक्षापात्रधारी बतलाया गया है, जो वास्तविकता के विरुद्ध है। दिगम्बरजैन मुनि भिक्षापात्र नहीं रखते, वे पाणितलभोजी होते हैं इसके विपरीत जो भिक्षापात्र रखते हैं, वे श्वेताम्बर मुनि नग्न नहीं रहते। वस्त्रलब्धियुक्त जिनकल्पी श्वेताम्बर मुनियों का शरीर अलौकिक वस्त्र से आच्छादित बतलाया गया है और वस्त्रलब्धि-रहित जिनकल्पियों की नग्नता एक, दो या तीन कल्पों (प्रावरणों) के धारण करने से अदृष्टिगोचर कही गयी है। स्थविरकल्पी श्वेताम्बर मुनि तो प्रावरणों के अतिरिक्त चोलपट्ट भी धारण करते थे। इस प्रकार कोई भी श्वेताम्बर मुनि नग्न नहीं रहता था। श्वेताम्बरग्रन्थों में मुनि का नग्न रहना असंयम और निर्लज्जता का कारण माना गया है।०२ इसलिए यदि इस कथा में भिक्षापात्र के वर्णन से श्वेताम्बर
१०२. देखिये, द्वितीय अध्याय / तृतीय प्रकरण / शीर्षक ३.३.१ जिनकल्पी भी सचेल और अनग्न।'
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