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________________ ते जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३४३ अलज्जिताये लज्जन्ति, लज्जिताये न लज्जरे । मिच्छादिट्ठिसमादाना, सत्ता गच्छन्ति दुग्गतिं ॥ ३१६॥ अभये भयदस्सिनो भये चाभयदस्सिनो । मिच्छादिट्ठिसमादाना, सत्ता गच्छन्ति दुग्गति न्ति ॥ ३१७ ॥ धम्मपद । " तत्थ अलज्जिताये ति अलज्जितब्बेन । भिक्खाभाजनहि अलज्जितब्बं नाम, पन तं पटिच्छादेत्वा विचरन्ता तेन लज्जन्ति नाम । लज्जितायेति अपटिच्छन्नेन हिरिकोपीनङ्गेन लज्जितब्बेन । ते पन तं अपटिच्छादेत्वा विचरन्ता लज्जिताये न लज्जन्ति नाम । तेन तेसं अलज्जितब्बेन लज्जितं लज्जितब्बेन अलज्जितं तुच्छगहणभावेन च अञ्ञथागहणभावेन चमिच्छादिट्ठि होति । तं समादियित्वा विचरन्ता पन ते मिच्छादिट्ठिसमादाना सत्ता निरयादिभेदं दुग्गतिं गच्छन्तीति अत्थो । अभयेति भिक्खाभाजनं निस्साय रागदोस- मोह-मानदिट्ठिकिलेसदुच्चरितभयानं अनुप्पज्जनतो भिक्खाभाजनं अभयं नाम, भयेन तं पटिच्छादेन्ता पन अभये भयदस्सिनो नाम । हिरिकोपीनङ्गं पन निस्साय रागादीनं उप्पज्जनतो तं भयं नाम, तस्स अपटिच्छादनेन भये चायभयदस्सिनो । तस्स तं अयथागहणस्स समादिन्नत्ता मिच्छादिट्ठिसमादाना सत्ता दुग्गहिं गच्छन्तीति अत्थो । १०० अ० ४ / प्र० २ अनुवाद " अलज्जिताये" इत्यादि धर्मदेशना शास्ता ने जेतवन में विहार करनेवाले निर्ग्रन्थों को लक्ष्य में रखकर की है। एक दिन (बौद्ध) भिक्षु निर्ग्रन्थों को देखकर चर्चा करने लगे - " मित्रो, सर्वथा नग्न रहनेवाले साधुओं से ये निर्ग्रन्थ अच्छे हैं, क्योंकि ये सामने का भाग ढँके रहते हैं। इसलिए लगता है कि ये सहीक (लज्जावान् ) हैं । यह सुनकर निर्ग्रन्थ बोले-"हम इस कारण ( लज्जा के कारण) नहीं ढँकते हैं, प्रत्युत धूल आदि भी जीव (पुद्गल) ही हैं, वे जीवन और इन्द्रियों से संयुक्त ही हैं, वे हमारे भिक्षापात्रों में न गिर जायँ, इस कारण हम ढँकते हैं।" ऐसा कहने के बाद उनके साथ बहुत देर तक वादविवाद हुआ। १०१ " जब शास्ता (गुरु) बैठे हुए थे, तब भिक्षुओं ने उनके पास जाकर, इस घटना की सूचना दी। शास्ता बोले - " भिक्षुओ ! जो लज्जा न करने योग्य कार्य में लज्जा करते हैं और लज्जा करने योग्य कार्य में लज्जा नहीं करते, वे दुर्गति के पात्र होते हैं।" यह कहकर धर्म का उपदेश देते हुए उन्होंने ये गाथाएँ कहीं- १००. निगण्ठवत्थु / क्र.८/ खुद्दकनिकाये धम्मपद - अट्ठकथा / भाग २ / पृ. २७९-२८० । १०१. पालिभाषा में ' पुग्गल' (पुद्गल) का अर्थ 'जीव' है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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