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________________ अ०४ / प्र० २ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३४१ एक दिन सैकड़ों नये वर्तनों में जलरहित खीर पकवाई और पाँच सौ नग्नमुनियों को आमंत्रित कर घर के भीतर प्रवेश कराया। मुनियों के आने पर सेठ ने विशाखा (पुत्रवधू) के पास आदेश भिजवाया कि वह आकर मुनियों को प्रणाम करे। विशाखा 'मुनि' नाम सुनकर बहुत प्रसन्न हुई और भोजनशाला में आयी, किन्तु नग्न मुनियों को देखकर सोचने लगी कि मुनि तो ऐसे लज्जा - भयरहित नहीं होते। मेरे ससुर ने मुझे क्यों बुलवाया ? 'छी-छी' इस प्रकार सेठ की निन्दा करती हुई अपने आवास में चली गयी। नग्न मुनि उसे देखकर एक साथ सेठ की निन्दा करने लगे - " धिक्कार है गृहपति ! क्या तुम्हें और कोई नहीं मिली, जो तुम श्रमण गौतम की श्राविका को घर में ले आये? इसे तुरन्त घर से निकालो।" सेठ सोचने लगा- 'इनके कहने मात्र से मैं इसे नहीं निकाल सकता। यह बड़े कुल की बेटी है।' यह सोचकर वह मुनियों से बोला - " आर्य ! यह बालिका है, जाने-अनजाने में यह ऐसा कर बैठी। आप ही शान्त रहें" इस प्रकार समझा-बुझाकर सेठ ने उन्हें बिदा किया और स्वयं बहुमूल्य आसन पर बैठकर स्वर्णपात्र में निर्जल मधुर खीर खाने लगा । " उसी समय एक भिक्षु भिक्षा के लिए भ्रमण करता हआ उसके घर में प्रविष्ट हुआ । विशाखा ससुर को पंखा झल रही थी । उसने सोचा- ' ससुर को बतलाना ठीक नहीं है, स्वयं ही भिक्षु को देख लेंगे।' किन्तु सेठ भिक्षु को देखकर भी अनदेखा करता हुआ नीचे मुँह किये हुए भोजन करता रहा। विशाखा ने यह देखकर कि मेरे ससुर भिक्षु को देखकर भी उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं, भिक्षु से कहा - " भन्ते ! आप जायँ, मेरे ससुर 'पुराना' खा रहे हैं।" जिस सेठ ने पहले विशाखा को निर्ग्रन्थों से क्षमा करा दिया था, उसने इस समय 'पुराना खा रहे हैं (बासी खा रहे हैं) ये वचन सुनते ही भोजन से हाथ हटा लिया और सेवकों से बोला - "यह खीर ले जाओ और इसे (विशाखा को ) इस घर से निकाल दो। यह मुझे इस मंगल अवसर पर अशुचिभक्षण करा रही है । " यह उपर्युक्त पालि उद्धरण का अनुवाद है। इसके बाद विशाखा स्पष्ट कर देती है कि " पुराना खा रहे हैं इस कथन का आशय यह था कि मेरे ससुर पूर्वार्जित पुण्यों का ही भोग कर रहे हैं, इस समय भिक्षा न देकर नया पुण्य अर्जित करने से वंचित हो रहे हैं। " बाद में अपनी पुत्रवधू विशाखा की प्रेरणा से बुद्ध का उपदेश सुनकर सेठ बुद्ध का अनुयायी बन जाता है और विशाखा को अपनी माता मान लेता है। इस कथा निर्ग्रन्थों को स्पष्ट शब्दों में नग्नश्रमण कहा गया है और विशाखा, जो कि बुद्धोपासक परिवार से आयी थी, मुनियों के नग्नरूप को देखकर उन्हें लज्जाभय Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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