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________________ अ०४ / प्र० २ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३३९ "अथ पूरणो निर्ग्रन्थो बालुकाघटं कण्ठे बद्ध्वा शितिकायां पुष्किरिण्यां१६ पतितः । स तत्रैव कालगतः। अथ ते निर्ग्रन्थाः पूरणं मृगयमाणाः प्रतिमार्गे गणिकां दृष्ट्वा पृच्छन्ति - भद्रे ! कञ्चित् त्वमद्राक्षीर्गच्छन्तमिह पूरणं धर्मशाटप्रतिच्छन्नं कटच्छव्रतभोजनम् ? गणिका प्राह आपायिको नैरयिको मुक्तहस्तावचारकः। स्वेताभ्यां९७ पाणिपादाभ्यां एष ध्वंसति पूरणः ॥ भद्रे मैवं वोचस्त्वं नैतत्तव सुभाषितम्। धर्मशाटप्रतिच्छन्नो धर्मं सञ्चरते मुनिः ॥ गणिका प्राह कथं स बुद्धिमान् भवति लोकस्य पश्यतो योऽयं यस्यायमीदृशो धर्मः तस्य वै श्रवणौ पुरुषो व्यञ्जनान्वितः । ग्रामे चरति नग्नकः ॥ पुरस्ताल्लम्बते दशा । क्षुरप्रेणावकृन्ततु ॥ अथ ते निर्ग्रन्था येन शितिका पुष्किरिणी तेनोपसङ्क्रान्ताः । अद्राक्षुस्ते निर्ग्रन्थाः पूरणं काश्यपं पुष्करिण्यां मृतं कालगतम् । दृष्ट्वा च पुनः पुष्किरिण्या उद्धृत्यैकान्ते छोरयित्वा प्रकान्ताः । ९८ राजा यहाँ जिस पूरण काश्यप की चर्चा है, वह अक्रियवादी पूरण काश्यप से भिन्न है, क्योंकि अक्रियवादी पूरण काश्यप निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का नहीं था, किन्तु यह निर्ग्रन्थसम्प्रदाय का था। Jain Education International इस कथा में बतलाया गया है कि निर्ग्रन्थ पूरण काश्यप के अनुयायी निर्ग्रन्थ उसके शव को पुष्करिणी से निकालकर एकतरफ छोड़कर चले जाते हैं । यह निर्ग्रन्थ मुनियों के अन्तिम संस्कार की वही विजहना प्रथा है, जिसका वर्णन 'भगवती - आराधना' में किया गया है। इस प्रथा के उल्लेख की समानता से 'भगवती - आराधना' ग्रन्थ भी 'दिव्यावदान' के समान ही प्राचीन सिद्ध होता है। ९६. 'पुष्करिण्यां' होना चाहिए । ९७. 'श्वेताभ्यां ' होना चाहिए । ९८. The Divyāvadāna, pp. 165-166. प्रथम शताब्दी ई० में रचित 'दिव्यावदान' में निर्ग्रन्थ मुनियों के नग्नरूप का वर्णन होने से सिद्ध है कि प्राचीन बौद्धसाहित्य में दिगम्बर जैन मुनियों का उल्लेख है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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