________________
३३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०२ १४ 'दिव्यावदान' में निर्ग्रन्थ-श्रमण का नग्नरूप "दिव्यावदान' संस्कृत में लिखित प्राचीन बौद्धग्रन्थ है। विद्वानों ने इसका रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई० माना है।५ इसकी सर्वप्रथम खोज श्री बी. एच. हॉजसन (Hodgson) ने नेपाल में की थी। और इसका पहला सम्पादन कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्रोफेसर श्री एफ० बी० कावेल (Cowell) एवं व्याख्याता श्री आर० ए० नील (Neil) ने रोमनलिपि में किया है। इस ग्रन्थ की भाषा मिश्र (Hybrid) संस्कृत है, क्योंकि इसमें पालिभाषा के शब्दों और प्रयोगों का मिश्रण है। इसमें अपाणिनीय प्रयोग भी अनेकत्र हैं, तथा ऐसे अनेक शब्द मिलते हैं जिनका प्रयोग संस्कृतसाहित्य में उपलब्ध नहीं होता। कई शब्द ऐसे हैं, जिनका व्यवहार अपरिचित अर्थ में किया गया है। ये ग्रन्थ की प्राचीनता के लक्षण हैं। इनका विस्तार से विवेचन श्री 'कावेल' और 'नील' ने 'दिव्यावदान' की भूमिका में किया है।
'दिव्यावदान' में एक 'प्रतिहार्यसूत्र' नाम की कथा है, जिसमें निर्ग्रन्थ श्रमणों को नग्नवेशधारी बतलाया गया है। कथा का सार यह है कि निर्ग्रन्थ श्रमण 'पूरण काश्यप' गौतम बुद्ध से ऋद्धिप्रातिहार्य-प्रदर्शन (चमत्कार-प्रदर्शन) की प्रतिस्पर्धा में पराजित और यक्ष द्वारा उत्पन्न आतंक से भयभीत होकर भाग जाता है तथा गले में बालुकाघट बाँधकर शितिका नामक पुष्पकरिणी में कूदकर आत्महत्या कर लेता है। उसके अनुयायी निर्ग्रन्थ-श्रमण उसे ढूँढ़ते हुए मार्ग में एक गणिका को देखकर पूछते हैं-"क्या तुमने पूरण निर्ग्रन्थ को देखा है, जिसका शरीर धर्मवस्त्र से आवृत था?" गणिका कहती है-"वह तो शितिका पुष्करिणी में डूबकर मर गया।" निर्ग्रन्थ श्रमण कहते हैं-"ऐसा मत कहो। वह तो धर्मवस्त्र से शरीर को आवृत कर धर्माचरण करनेवाला मुनि है।" गणिका कहती है
__ "वह अज्ञानी पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है, जो लोगों के सामने नग्न होकर गाँव में घूमता-फिरता है, जिसका 'धर्म' लिंग का प्रदर्शन करना है ('यस्यायमीदृशो धर्मः पुरस्ताल्लम्बते दशा') उसके तो दोनों कान राजा को छुरे से कटवा देने चाहिए।"
वे निर्ग्रन्थ श्रमण 'शितिका' नामक पुष्पकरिणी (सरोवर) पर जाते हैं और देखते हैं कि पूरण काश्यप उसमें मरा पड़ा है। वे उसके शव को पुष्करिणी से निकालते हैं और एक तरफ छोड़कर चले आते हैं। कथा का प्रासंगिक संस्कृत मूलपाठ नीचे दिया जा रहा है
९५. बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास / पृ.४३७।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org