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________________ अ०४/प्र०२ जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा / ३३७ बात के प्रमाण हैं कि बौद्धसाहित्य में निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के श्रावकों को भी 'निर्ग्रन्थ' शब्द से सम्बोधित किया गया है, क्योंकि अन्य सम्प्रदायों से उनकी भिन्नता दर्शाने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई शब्द ही नहीं था। इसलिए मुनि श्री कल्याणविजय जी का यह कथन समीचीन नहीं है कि बौद्धसाहित्य में सर्वत्र जैन श्रावकों का कथन 'निगंठसावक' या 'निगंठस्स नाथपुत्तस्स सावका' शब्दों से हुआ है, 'निगण्ठ' शब्द से भी हुआ है, यह उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है। 'ओदातवसन' का अर्थ श्वेतवस्त्रधारी मुनि श्री कल्याणविजय जी की दूसरी आपत्ति यह है कि 'ओदातवसन' में 'ओदात' (अवदात) का अर्थ श्वेत नहीं, अपितु उज्ज्वल अथवा स्वच्छ है और उज्ज्वल श्वेत भी हो सकता है और अन्यवर्ण भी। (अ.भ.म./पृ.३२३)। किन्तु संस्कृत-हिन्दीकोश तथा पालि-हिन्दीकोश में 'ओदात' एवं 'अवदात' का अर्थ श्वेत भी मिलता है। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् श्री भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने अपने पालि-हिन्दीकोश में 'ओदातवसन' का अर्थ एकमात्र 'श्वेतवस्त्रधारी' ही किया है। __तथा सम्राट अशोक के सारनाथ-लघुस्तम्भलेख में लिखा है कि जो भिक्षु या भिक्षुणी संघ में भेद उत्पन्न करेगा, उसे अवदातवस्त्र धारण कराकर एकान्त स्थान में रखा जायेगा-"भिखू वा भिखुनि वा संघं भाखति से ओदातानि दुसानि सनंधापयि या आनावाससि आवासयिये।"१४ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि बौद्ध भिक्खु लाल रंग के वस्त्र पहनते थे, आज भी पहनते हैं। उन्हें संघभेद करने के दण्डस्वरूप अवदात दूष्य (वस्त्र) धारण कराकर अलग रखने की चेतावनी दी गई है। क्या यहाँ लाल रंग के वस्त्रों को उज्वल करके पहनाने का आशय है? ऐसा करना दण्ड होगा या पुरस्कार? वस्तुतः रक्तपट बौद्ध भिक्खु-भिक्खुनियों का धार्मिक वेश है। उसे छीनकर श्वेतवस्त्र पहनाने से ही बहिष्काररूप दण्ड फलित हो सकता है। अतः यहाँ अवदातवस्त्र से श्वेतवस्त्र अर्थ ही अभिप्रेत है। तात्पर्य यह कि उपर्युक्त धार्मिक प्रकरणों में 'अवदातवस्त्र' शब्द श्वेतवस्त्र अर्थ का ही वाचक है। अतः दीघनिकायपालि (भा. ३) के 'पासादिकसुत्त' में कथित "ये पि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना" इस वाक्य का "महावीर के श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ श्रावक" यह अर्थ स्वीकार करना सर्वथा उचित है। ९४. सारनाथ-लघुस्तम्भलेख / 'भारतीय पुरालेखों का अध्ययन': डॉ. शिवरूप सहाय/ पृ. १३.५५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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