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३३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०४/प्र०२ "स्वामी पूछे। जानती होंगी, तो कहेंगी।" स्थविर ने पूछा-"एक बात क्या है?" वे नहीं बता सकीं, तब स्थविर ने बतायी। इस पर वे बोली"स्वामी! हमारी पराजय हुई। आपकी जय हुई।" "अब क्या करोगी?"
"हमारे माता-पिता ने हमसे कहा था कि यदि गृहस्थ से पराजित हुईं, तो उसकी गृहिणी बन जाना और यदि प्रव्रजित से पराजित हुईं, तो उनके पास प्रव्रजित हो जाना। आप हमें प्रव्रजित करें।"
स्थविर ने 'अच्छा' कहकर उन्हें उत्पलवर्णा स्थविरी के पास प्रव्रजित कराया। सभी शीघ्र ही अर्हत्व को प्राप्त हुईं।
भिक्षुओं ने धर्मसभा में चर्चा की-आयुष्मानो! सारिपुत्र स्थविर ने चारों परिव्राजिकाओं का सहायक हो, सभी को अर्हत्व प्राप्त करा दिया।३
इस कथा में निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के शास्त्रार्थकुशल श्रावक-श्राविका को 'निर्ग्रन्थ' और 'निर्ग्रन्थी' शब्दों से सम्बोधित किया गया है। वे श्रमण और श्रमणी नहीं थे, यह इसी बात से सिद्ध है कि वैशाली के शास्त्रार्थनिपुण 'सात हजार सात सौ सात' लिच्छवी राजागणों और अन्य धर्मवृद्ध लोगों ने, जो संभवतः निर्ग्रन्थसम्प्रदाय के ही रहे होंगे, उनका विवाह कराना उचित समझा और वे निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी भी इसके लिए तैयार हो गये। यदि वे मुनि और आर्यिका होते, तो पहले तो स्वयं ऐसा पापकर्म करने में लज्जित होते, पुनः यदि वे निर्लज्ज होकर ऐसा कदम उठाते, तो वैशाली के शास्त्रार्थकुशल लिच्छवी-राजागण और अन्य धर्मवृद्ध उन्हें ऐसा करने से रोकते, क्योंकि धर्म और सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा करने का उत्तरदायित्व उन पर था। अतः वे श्रावकश्राविका ही थे, फिर भी उनके लिए 'निर्ग्रन्थ्' और 'निर्ग्रन्थी' शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त उनसे जो चार पुत्रियों के अतिरिक्त एक 'सच्चक' नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था, वह वैशाली में रहकर ही लिच्छवियों को शिल्प सिखाने लगा था, जिससे सूचित होता है कि वह गृहस्थ ही था। उसके लिए भी कथा में 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग किया गया है। संभवतः सच्चक वही निर्ग्रन्थपुत्र सच्चक है, जिसका वर्णन 'मज्झिमनिकायपालि' (भा.१) के 'महासच्चकसुत्त' में हुआ है। ये प्रयोग इस
९३. अनुवादक : भदन्त आनन्द कौसल्यायन/चुल्लकालिंगजातक / परिच्छेद ४/जातक/तृतीय खण्ड।
पृ. १७२-१७३ / हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, सन् १९९० ई.।
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